1943 का बंगाल अकाल: भुखमरी की भयावह गाथा

1943 का बंगाल अकाल भुखमरी की भयावह गाथा

ऐसी भयानक त्रासदी जो हमारे इतिहास में दर्ज है। 1943 का बंगाल में पड़ा अकाल आज भारत के इतिहास में दर्ज ये ऐसी त्रासदी है, जिसके कारण लाखों लोगों की जान गई। इस भयंकर आपदा ने मानवता को शर्मसार कर दिया। यह अकाल केवल एक प्राकृतिक आपदा नहीं था, बल्कि यह एक ऐसी भयावह स्थिति थी, जिसे कई हद तक मानवजनित और राजनीतिक कारणों ने जन्म दिया। कहा जाता है कि इस अकाल के कारण 30 लाख से अधिक लोगों की जान गई और करोड़ों लोग इससे प्रभावित हुए।

यह त्रासदी आज भी चर्चा में है और रहेगी क्योंकि यह दुखद घटना उस समय घटी जब भारत पर अंग्रेजों का शासन था । यह मुख्य रूप से दर्शाता है कि किस तरह प्रशासनिक लापरवाही, उपनिवेशवादी नीति और संवेदनहीनता ने एक पूरी जनसंख्या को मृत्यु के मुँह में धकेल दिया। इस भयंकर अकाल ने मृत्यु का तांडव मचाया था और इस मौत के तांडव से कितने मासूम लोगों की जान गई।

1943 का बंगाल अकाल के मुख्य बिंदु

▪️1943 की एक ऐसी भयानक त्रासदी जो हमारे आज भी इतिहास के पन्नों में दर्ज है।

▪️बंगाल में अकाल बना मानवजनित संकट का कारण, गई लाखों की जान।

▪️बंगाल में हुई इस त्रासदी ने गांवों से लेकर शहरों तक भुखमरी फैला दी, इससे लाखों लोग सड़कों पर अपने जीवन की भिक्षा मांगते नजर आए।

▪️सरकारी उदासीनता और ब्रिटिश प्रशासन का रवैया रहा इस घटना का मुख्य कारण।

▪️इतिहास में मानवता की वो काली तस्वीरें जिन्हें देख कर रोंगटे खड़े हो जाते है। जिसमें देखी जा सकती है मौत, लाचारी और साथ में अपमान।

▪️सहायता और लोगों को राहत मिल सके इसके लिए कुछ सामाजिक संगठनों और भारतीय नेताओं का रहा हस्तक्षेप।

▪️ ब्रिटिश सरकार की उदासीनता और उनके लोगों पर किए जा रहे व्यवहार से जनता में बड़ा आक्रोश, यहीं से हुई नई दिशा की शुरुवात।

▪️हम हमारे अधिकारों के लिए आवाज नहीं उठाएंगे तो कभी भी ब्रिटिश सरकार की तरह हमारी आवाज को दवा दिया जाएगा।

▪️आध्यात्मिकता के अनुसार यदि व्रत करने से ईश्वर प्राप्ति और मुक्ति मिलती तो जनता अकाल पड़ने से नहीं मरती।

बंगाल में अकाल बनी प्रकृति या मानवजनित संकट का रहा कारण 

  • युद्धकालीन स्थिति (द्वितीय विश्व युद्ध): द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार ने बंगाल और भारत के अन्य हिस्सों को सैन्य रणनीति का हिस्सा बना लिया। जापानी सेना बर्मा (अब म्यांमार) पर कब्ज़ा कर चुकी थी और बंगाल के पूर्वी सीमावर्ती क्षेत्र को युद्ध की संभावना से घिरा मानकर ब्रिटिश सरकार ने वहाँ के अनाज भंडार और साधनों को नष्ट करने की नीति (Denial Policy) अपनाई।
  •  ‘Denial Policy’ और अनाज की जमाखोरी: ब्रिटिश प्रशासन ने जापानी सेना को संसाधन उपलब्ध न हो, इस डर से गाँवों की नावें, बैलगाड़ियाँ और खाद्यान्न नष्ट करा दिए। इसके साथ ही कई व्यापारी वर्ग ने अनाज की जमाखोरी शुरू कर दी, जिससे मूल्य आसमान छूने लगे और गरीबों की पहुँच से खाद्य सामग्री दूर हो गई।
  • परिवहन बाधाएं और प्रशासनिक विफलता: रेलवे और सड़कों का उपयोग अधिकतर सेना के लिए किया जा रहा था। नतीजतन, जिन क्षेत्रों में थोड़ी बहुत फसल थी, वहाँ से अनाज ज़रूरतमंद क्षेत्रों में भेजा नहीं जा सका। प्रशासन पूरी तरह से ठप था और ज़मीनी हकीकत की अनदेखी कर रहा था।
  • प्राकृतिक कारणों की सीमित भूमिका: वर्ष 1942-43 में सूखा या बाढ़ जैसी कोई बड़ी प्राकृतिक आपदा नहीं हुई थी। फिर भी अकाल फैला — यह दिखाता है कि यह संकट अधिकतर मानवजनित था।

क्या था भुखमरी फैलने का कारण 

▪️किसान और ग्रामीण समुदाय सबसे ज्यादा प्रभावित हुए क्योंकि कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाले ग्रामीण क्षेत्रों में जब अनाज की आपूर्ति बाधित हुई, तो सबसे पहले किसान ही भूखे मरने लगे। जिनके पास थोड़ी बहुत फसल थी, वे भी व्यापारियों के हाथों लुट गए या मजबूरी में बेहद कम दामों पर बेचने को विवश हो गए।

▪️शहरी क्षेत्रों में पलायन और भीख मांगने की बढ़ती प्रवृत्ति ने भी बहुत भयानक मंजर दिखाया। भूख से परेशान ग्रामीण, खाने की उम्मीद में शहरों की ओर पलायन करने लगे। कोलकाता जैसे शहरों में हजारों लोग हर दिन सड़कों पर भीख मांगते और दम तोड़ते देखे गए। बच्चों को सड़कों पर बेचने तक की नौबत आ गई।

▪️भोजन की भारी किल्लत और महंगाई भी मुख्य कारण रही है। चावल की कीमतें 8 से 10 गुना तक बढ़ गईं। आम लोगों की औकात से बाहर हो गया कि वे एक समय का भोजन भी जुटा सकें। ऐसा अंग्रेजों ने जानबूझ कर किया,जिससे जनहित को हानि हो जाए और उनका उद्देश्य और सरल हो जाए।

सरकारी उदासीनता और ब्रिटिश प्रशासन का रवैया

ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने इस अकाल को हल्के में लिया। चर्चिल ने एक बार व्यंग्य में कहा था, “अगर भारतीय भूखे मर रहे हैं, तो यह उनकी गलती है कि वे खरगोशों की तरह प्रजनन करते हैं।” चर्चिल की प्राथमिकता यूरोप की लड़ाई थी, न कि भारत में हो रही मौतें। स्थानीय प्रशासन की इसमें बहुत ज्यादा नाकामी रही थी, इसके कारण ही असर और बढ़ता चला गया ।

बंगाल के गवर्नर सर जॉन हर्बर्ट पूरी तरह से स्थिति को संभालने में विफल रहे। समय पर राहत कार्य नहीं शुरू हुए और जब शुरू हुए भी, तो इतने सीमित कि वे प्रभावहीन सिद्ध हुए। इतना ही नहीं जानबूझकर राहत में देरी की गई। इसके पीछे का मुख्य कारण कई इतिहासकारों और शोधकर्ताओं का मानना है कि ब्रिटिश सरकार ने जानबूझकर राहत कार्यों में देरी की, ताकि भारतीयों की स्वतंत्रता की आकांक्षा को कुचला जा सके। ब्रिटिश सरकार दिन प्रतिदिन नई-नई योजनाएं तैयार कर रही थी, ताकि लोगों पर इसका असर बहुत तेजी से फैल जाए।

भूख, लाचारी और आँसू: बंगाल अकाल की मर्मांतक दास्तान

उस समय का दृश्य इतना भयानक था कि हर किसी का दिल दहला गया जैसे कि सड़कों पर पड़ी लाशें, माँ अपने बच्चों को मरते हुए देखना ।बंगाल की गलियों में लाशें इस कदर बिछी हुई थीं कि उन्हें हटाने के लिए नगरपालिकाएं भी थक गई थीं। माएँ अपने बच्चों को भूख से तड़पते हुए मरते देख रहीं थीं और कुछ माँएँ मजबूरी में अपने बच्चों को छोड़ने तक को मजबूर हुईं। स्थानीय और अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारों ने स्थिति की भयावहता को अखबार के पेज में छापा। बात यहां तक आ गई कि चश्मदीदों ने बयान दिया कि किस तरह लोगों ने मरे हुए जानवरों और कभी-कभी इंसानों का मांस खाने तक का प्रयास किया।

कुछ प्रमुख तस्वीरों और लेखों ने तो विश्व को हिलाकर रख दिया। फोटोग्राफर Sunil Janah और Margaret Bourke-White ने जो तस्वीरें खींचीं, वे आज भी मानवता पर लगे सबसे काले धब्बों को दिखाती हैं। इस अकाल ने जनमानस को अंदर से झंझोर कर रख दिया था।जब भी इस अकाल के बारे में चर्चा की जाती है लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते है।

देर से आए हाथ, तब तक बुझ चुकी थीं साँसें

कुछ सामाजिक संगठनों और भारतीय नेताओं जैसे कि महात्मा गांधी, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, नेताजी सुभाष चंद्र बोस और कई अन्य भारतीय नेताओं ने इस त्रासदी की कड़ी आलोचना की। कुछ सामाजिक संगठनों जैसे रामकृष्ण मिशन, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मारवाड़ी राहत समिति ने राहत कार्यों में हिस्सा लिया। इन संगठनों ने बहुत मदद करने की कोशिश की, लोगों को जितनी राहत मिल सकती थी, इसके लिए बहुत प्रयास किया गया।

ब्रिटिश राहत योजना की सीमाएं केवल एक दिखावा रहा क्योंकि जब तक ब्रिटिश प्रशासन ने भोजन और दवाओं की आपूर्ति शुरू की, तब तक लाखों जानें जा चुकी थीं। उनकी योजनाएं ज़्यादा प्रभावी नहीं थीं, क्योंकि उनमें स्थानीय सहयोग और समझ की कमी थी। उनके अंदर मानवता की कमी रही, जिस कारण वे बिल्कुल भी मन से कुछ नहीं करना चाहते थे। मुख्य कारण तो ब्रिटिश सरकार की लापवाही और एक जानबूझ कर मदद न करने की साजिश है,जिससे लाखों की जान गई और अनेकों इस अकाल के प्रभाव में आए।

भारत के स्वतंत्रता संग्राम पर क्या रहा असर

जनता में आक्रोश और चेतना जागृत होने लगी उसके बाद तो लोगों में ब्रिटिश शासन के प्रति रोष बढ़ता चला गया। अकाल ने आम जनता को यह दिखा दिया कि ब्रिटिश शासन केवल अपने हितों की परवाह करता है। इसने जनता में असंतोष और आक्रोश को गहरा किया। लोगों ने पाया कि ब्रिटिश सरकार मानवता से कोसों दूर है, इनको सिर्फ अपना हित दिखता है। इसमें मुख्यता कांग्रेस और अन्य आंदोलनों को समर्थन मिला।

‘भारत छोड़ो आंदोलन’ (1942) के बाद इस अकाल ने उस भावना को और मज़बूती दी कि भारत को अब स्वतंत्र होना चाहिए। कांग्रेस, क्रांतिकारी दलों और सुभाष चंद्र बोस के आज़ाद हिंद फौज को ज़मीनी समर्थन बढ़ा। यह त्रासदी आज़ादी की लड़ाई के नैतिक पक्ष को और मजबूत करती है। यह घटना भारतीयों की सामूहिक चेतना में एक स्थायी छवि छोड़ गई।

अकाल से मोक्ष तक: तत्वज्ञान की ओर एक जागृति

मानव जीवन बहुत ही दुर्लभ है, इसका मुख्य उद्देश्य सतभक्ति करके मोक्ष प्राप्त करना है। मोक्ष का अर्थ होता है जन्म – मरण के चक्कर से मुक्त होना है। लगभग सभी धर्मों में व्रत रखा जाता है, क्योंकि ऐसी मान्यताएं है कि व्रत रखने से ईश्वर प्राप्ति और मोक्ष होता है। ऊपर विस्तार में बताई गई घटना/अकाल से स्पष्ट होता है कि व्रत रखने यानी कि भूखे रहने से न तो ईश्वर प्राप्त होते है और न ही मोक्ष यदि ऐसा होता तो लाखों लोगों की जान नहीं गई होती।

हमारे वेदों – पुराणों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि व्रत रखना बहुत गलत है, ऐसा करने वाले को कुछ भी प्राप्त नहीं होता है, ईश्वर प्राप्ति की तो बात ही दूर है। वर्तमान में जगतगुरू संत रामपालजी महाराज ही आध्यात्मिक ज्ञान के आधार से पूर्ण परमात्मा की भक्ति विधि और मर्यादाओं की जानकारी भक्त समाज को प्रदान कर रहें हैं, जिससे इंसान का पूर्ण मोक्ष प्राप्त हो सकता है।

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