भाई दूज पर क्या है पौराणिक कथाएं: किस युग में और कैसे हुई थी इसकी शुरुआत?

भाई दूज

प्रिय पाठकों जैसा कि आप जानते हैं कि, भारत आदिकाल से ही एक ऐसा देश रहा है जहां पर सदियों से ही लोग त्योहारो में गहरी आस्था रखते हैं, जिनमें कुछ एक समाज में अपनी अमिट छाप छोड़ जाते हैं। उन्हीं में से एक है भैया दूज, जानिए इसके पीछे की पूरी कहानी…….. 

Bhai dooj 2024: भाई दूज का शुभ मुहूर्त और समय

भारतीय इतिहास में पूरे वर्ष कोई न कोई त्योहार या मेले आते ही रहते हैं, जिन्हें किसी ना किसी विशेष मान्यताओं से जोड़कर देखा जाता है। भारतवर्ष के लोगों की इन मेले और त्योहारों में बहुत गहरी आस्था जुड़ी होने के कारण ये लोग इन त्योहारों और मेलों को बड़े हर्षोल्लास से मनाते हैं उन्हीं में से एक है “भाई दूज का पर्व” जोकि, होली व दिवाली के पश्चात् आता है। 

दिवाली के अवसर पर आने वाली भाईदूज या भ्रातृ द्वितीया का पर्व कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को मनाया जाता है। यह त्योहार रक्षाबंधन की तरह ही मनाया जाता है, बस फ़र्क इतना है कि इसमें भाई की कलाई पर राखी नहीं बांधी जाती बल्कि केवल माथे पर तिलक लगाया जाता है। भाई दूज का त्योहार गोवर्धन पूजा के अगले दिन मनाया जाता है। इस साल भाई दूज का त्योहार 2 नवंबर 2024 बुधवार को मनाया जाएगा। 

भाई दूज का महत्व; और पौराणिक कथाएं

भाई दूज की पौराणिक कथाओं के अनुसार यमराज को उनकी बहन यमुना ने कई बार मिलने के लिए बुलाया, लेकिन यमराज नहीं जा पाए। जब वो एक दिन अपनी बहन से मिलने पहुंचे तो उनकी बहन अत्यंत प्रसन्न हुई और उन्होंने यमराज को बड़े स्नेह व आदर से भोजन कराया और तिलक लगाकर उनकी खुशहाली की कामना की जैसे बहनें अपने भाई की खुशहाली के लिए करती हैं। इससे खुश होकर यमराज ने बहन यमुना से वर मांगने को कहा। तब यमुना ने मांगा कि इस तरह ही आप प्रति वर्ष कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को मेरे घर आया करो। तभी से समाज में यह मान्यता फैल गई। 

भाई दूज की पूजा विधि और परंपराएं

भैया दूज के दिन बहन अपने भाई के घर जाती है, अपने भाई को तिलक लगाती है और मिठाई खिलाती है। लेकिन शुरूआत में मान्यता यह थी कि जो भी भाई अपनी बहन के घर जाएगा और उनके यहां भोजन करेगा व बहन से तिलक करवाएगा तो उसे यम व अकाल मृत्यु का भय नहीं होगा। यमराज ने यह वचन अपनी बहन को दे दिया था और तभी से ये त्योहार रूप में मनाया जाने लगा।

भाई दूज का त्योहार: भाई-बहन के अटूट बंधन का प्रतीक

भैया दूज का यह पर्व भाई बहन के आपसी प्रेम और संबंध का बोधक माना जाता है। इस दिन को यम द्वितीया के नाम से जाना जाता है। और ऐसा माना जाता है कि इस दिन भाई का बहन के घर भोजन करना बहुत शुभ होता है, और इस दिन यमुना नदी में स्नान करने का भी बहुत अधिक महत्व है। भाई दूज की यह कथा अब त्योहार का रूप ले चुकी है।

अब पाठकों! विचार करें कि क्या इस तरह की पौराणिक कथाओं को संपूर्ण जीवन का आधार मान लेना और उसके अनुसार ही इन परम्पराओं का वहन करते हुए अपने अनमोल मानव जीवन को बर्बाद कर जाना कहां तक और कैसे उचित है?

तथा क्या इस प्रकार की क्रियाओं को करने का हमारे सद्ग्रंथों में कहीं वर्णन मिलता है?

इस सवाल का उपयुक्त जवाब जानने के लिए बने रहिए हमारे इस सटीक प्रमाणों से भरपूर आर्टिकल के साथ।

सच तो यह है कि इस पर्व का हमारे पवित्र सद्ग्रंथों, वेदों और‌ गीता जी से दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं है। यह एक भाई-बहन के आपसी प्रेम पर आधारित वादा/वचन था जिसे आज सभी भाई-बहन करने लगे और अब यह हिन्दू समाज से एक अनिवार्य मान्यता के रूप में जुड़ गया है।

भाई दूज: भाई-बहन के रिश्ते का त्योहार

भारत रत्न महामहोपाध्याय डॉ० पी० वी० काणे के अनुसार भ्रातृ द्वितीया का उत्सव एक स्वतंत्र कृत्य है, किंतु यह दिवाली के तीन दिनों में संभवतः इसीलिए मिला लिया गया कि इसमें बड़ी प्रसन्नता एवं आह्लाद का अवसर मिलता है जो दीवाली पर ख़ुशी की घड़ियों को बढ़ा देता है। भाई-बहन एक-दूसरे से मिलते हैं, बचपन के सुख-दुख की याद करते हैं। इस कृत्य में धार्मिकता का रंग भी जोड़ दिया गया है।

 अर्थात यह भाई दूज का पर्व मनाने की प्रथा का वर्णन हमारे सदग्रंथों में कहीं नहीं है। हम सभी अपने परिवार, सदस्यों, रिश्तेदारों, दोस्तों, पड़ोसियों और‌ स्वयं की खुशहाली की कामना परमेश्वर से करते हैं। कोई बहन या भाई वह कार्य नहीं कर सकता जो ईश्वर किसी व्यक्ति विशेष के‌ लिए कर सकता है। तत्त्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज जी जो स्वयं कबीर परमेश्वर के अवतार हैं, अपने सत्संगों में बताते हैं कि “यह लोक है जहां हम ठाठ से रह रहे हैं ये काल का है,

यम के दूत यहां हर पल घात लगाए रहते हैं कि व्यक्ति का समय पूरा होते ही उसे पकड़ कर‌ धर्मराज दरबार में ले जाएं। यहां कोई खुशी मनाने की आवश्यकता नहीं। बल्कि सतभक्ति करके यहां से जाने की तैयारी करनी चाहिए। यह लोक रहने लायक नहीं है”।

क्या है श्रेष्ठ, भैया दूज या कबीर पूजा?

पद्म पुराण में कहा गया है कि कार्तिक शुक्लपक्ष की द्वितीया को पूर्वाह्न में यम यानी भाई की पूजा करके यमुना में स्नान करने वाला मनुष्य यमलोक को नहीं देखता अर्थात उसको मुक्ति प्राप्त हो जाती है (उत्तरखण्डम् 122-91/92 पूर्ववत)। 

नदी में स्नान करने मात्र से यदि मुक्ति संभव होती और नरक जाने से बच जाते तो जलचर जो सदैव जल में ही रहते हैं तो वे तो मानव से पहले ही मुक्त हो जाने चाहिए थे। किन्तु पाठकों! ऐसा नहीं है गंगा स्नान तथा तीर्थों पर लगने वाली पर्भी में स्नान पवित्र गीता जी में वर्णित न होने के कारण शास्त्रविरुद्ध मनमाना आचरण हुआ। जिसे पवित्र गीता जी अध्याय 16 श्लोक 23,24 में व्यर्थ कहा है।

कौन हैं हमारा असली रक्षक?

पवित्र सदग्रंथों और पांचवें वेद सूक्ष्मवेद में परमेश्वर के गुणों का बखान मिलता है कि पू्र्ण परमात्मा अपने साधक के सर्व पापों को नष्ट कर सकता है और सर्व प्रकार से अपने साधक की रक्षा करता है। प्रत्येक जीव का असली रक्षक पूर्ण परमात्मा ही होता है जिसका नाम कविर्देव है। जिसे अपभ्रंश रूप में कबीर जी भी कहा जाता है। कबीर साहेब जी चारों युगों में आते हैं। कलयुग में पूर्ण परमात्मा का नाम कविर्देव होता है। प्रमाण के लिये देखिये “अथर्ववेद काण्ड नं.04 अनुवाक नं. 01 मंत्र नं.07”

पवित्र गीता अध्याय 9 के श्लोक 23, 24 में कहा है कि जो व्यक्ति अन्य देवताओं को पूजते हैं वे भी मेरी काल जाल में रहने वाली पूजा ही कर रहे हैं। परंतु उनकी यह पूजा अविधिपूर्वक है (अर्थात् शास्त्र विरूद्ध है)। भावार्थ है कि अन्य देवताओं को नहीं पूजना चाहिए क्योंकि सम्पूर्ण यज्ञों का भोक्ता व स्वामी मैं ही हूँ। वे भक्त मुझे अच्छी तरह नहीं जानते। इसलिए पतन को प्राप्त होते हैं अर्थात नरक व चौरासी लाख योनियों में कष्ट उठाते हैं।

 जैसे गीता अध्याय 3 श्लोक 14-15 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि सर्व यज्ञों में प्रतिष्ठित अर्थात् सम्मानित, जिसको यज्ञ समर्पित होती है वह परमात्मा (सर्व गतम् ब्रह्म) पूर्ण ब्रह्म है। वही कर्माधार बना कर सर्व प्राणियों को मोक्ष प्रदान करता है। परन्तु पूर्ण संत न मिलने तक सर्व यज्ञों का भोग(फल) काल (मन रूप में) ही भोगता है, इसलिए कहा है कि मैं सर्व यज्ञों का भोक्ता व स्वामी हूँ। जब तक मनुष्य पूर्ण परमात्मा को नहीं पहचान लेते तब तक काल उनसे अन्य देवी-देवताओं की मनमानी,

लोकवेद आधारित, पौराणिक, शास्त्र विरूद्ध पूजाएं करवाकर त्योहार रूपी जाल में फंसाए रखता है। मनुष्य जीवन का मूल उद्देश्य आत्म कल्याण है जो शास्त्र अनुकूल साधना से ही संभव और सुलभ है।

वर्तमान में सर्व पवित्र भक्त समाज शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण कर रहा है। गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में तत्वदर्शी संत की तरफ संकेत किया है। उसी पूर्ण परमात्मा की शास्त्र विधि अनुसार साधना करने से ही साधक परम शान्ति तथा सतलोक को प्राप्त होता है अर्थात् पूर्ण मोक्ष को प्राप्त करता है। प्रिय पाठकगण! आप जी से निवेदन है कि पाखण्ड पूजा त्योहार इत्यादिको न मना कर सतभक्ति करने के लिए संत रामपाल जी महाराज से निःशुल्क नाम दीक्षा लें और सतज्ञान समझकर अपने जीव का उद्धार करवाएं।

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