ईरान का इतिहास: सभ्यता, साम्राज्य और क्रांति की कहानी

ईरान का इतिहास सभ्यता, साम्राज्य और क्रांति की कहानी

ईरान, जिसे प्राचीन काल में फ़ारस के नाम से जाना जाता था, मानव इतिहास की सबसे पुरानी और प्रभावशाली सभ्यताओं में से एक रहा है। यह केवल एक देश नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक क्षेत्र था, जिसका विस्तार आधुनिक ईरान से कहीं आगे तक फैला हुआ था—दक्षिणी इराक, पश्चिमी अफगानिस्तान, अज़रबैजान, पूर्वी तुर्की और ताजिकिस्तान तक। इन क्षेत्रों पर कभी फारसी शासकों ने शासन किया था, और उनकी संस्कृति की छाप आज भी वहाँ के साहित्य, भाषा, धर्म, और सामाजिक परंपराओं में देखी जा सकती है।

ईरान में मानव निवास के सबसे प्राचीन प्रमाण लगभग एक लाख वर्ष पुराने हैं। यहाँ की भूमि पर पुरापाषाण कालीन उपकरण और मानव कंकाल मिले हैं। लगभग 5000 ईसा पूर्व तक ईरान के लोगों ने खेती करना आरंभ कर दिया था, जिससे यहाँ बसावट और सामाजिक संगठन की शुरुआत हुई। लगभग 2000 ईसा पूर्व में आर्य-भाषी जातियाँ उत्तर और पूरब से ईरान पहुँचीं। ये यायावर जनजातियाँ थीं, जिन्होंने धीरे-धीरे कृषि करना सीखा और स्थानीय लोगों के साथ मिलकर एक मिश्रित संस्कृति की नींव रखी। इन आर्य शाखाओं में से मीदि, पार्थियन, फारसी, और सोगदी प्रमुख थीं, जिन्होंने आगे चलकर ईरान के प्राचीन साम्राज्यों की आधारशिला रखी।

हखामनी और सासानी: साम्राज्यों की सुनहरी गाथा

ईरान के इतिहास में पहली महान राजनीतिक शक्ति थी हखामनी वंश (Achaemenid Empire), जिसकी स्थापना 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व में साइरस महान (Cyrus the Great) ने की। साइरस की उदार नीतियों और धार्मिक सहिष्णुता के कारण फारसी साम्राज्य को केवल सैन्य शक्ति ही नहीं, बल्कि नैतिक नेतृत्व भी प्राप्त हुआ। उन्होंने बेबीलोन को जीतकर यहूदियों को उनके देश लौटने और अपने धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता दी।

इसके बाद दर्यव महान (Darius the Great) और उनकी क्षत्रप प्रशासन प्रणाली ने इस साम्राज्य को और सुव्यवस्थित बनाया। फारसी साम्राज्य की सीमाएँ पश्चिम में यूनान, दक्षिण में मिस्र, और पूर्व में सिंधु घाटी तक फैल गईं।

हखामनी साम्राज्य के पतन के बाद सिकंदर महान ने ईरान पर आक्रमण किया, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद ईरान फिर से फारसी सत्ता के अधीन आ गया। सासानी वंश (Sassanid Empire) ने 3वीं से 7वीं शताब्दी तक शासन किया और इसे ज़रदोश्त धर्म का स्वर्ण युग कहा जाता है। सासानी शासकों ने कला, दर्शन, और विज्ञान को खूब बढ़ावा दिया, और उनके शासनकाल को फारसी सांस्कृतिक गौरव का चरम माना जाता है।

ज़रदोश्त धर्म और धार्मिक प्रभाव

ज़रदोश्त (Zarathustra) एक धार्मिक सुधारक थे, जो संभवतः 1000 ईसा पूर्व या उससे पहले हुए। उन्होंने अहुरमज़्दा को एकमात्र ईश्वर मानने वाले धर्म की स्थापना की। यह धर्म ‘पारसी धर्म’ या ‘ज़रदोश्त धर्म’ कहलाया। इसके प्रमुख सिद्धांतों में सत्य बोलना, अच्छे विचार रखना, और अच्छे कर्म करना शामिल थे।

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ज़रदोश्त धर्म ने बाद के यहूदी, ईसाई, और इस्लामी विचारों पर भी गहरा प्रभाव डाला — जैसे स्वर्ग-नरक की अवधारणा, अंतिम न्याय, और एक ईश्वर का विचार।

जब बेबीलोन पर फारस का अधिपत्य हुआ, तब हजारों यहूदियों को ज़रदोश्त संस्कृति से संपर्क मिला। इस मिलन से यहूदी धर्म में कई परिवर्तन आए। यहाँ तक कि बाइबल में भी पारसी सम्राटों का उल्लेख सम्मान के साथ किया गया है।

इस्लाम का आगमन और पारसी पलायन

7वीं सदी में अरबों के आक्रमण के साथ इस्लाम ईरान पहुँचा। प्रारंभिक मुस्लिम शासनकाल में ईरान पर सुन्नी खलीफाओं का शासन रहा। इससे पहले ज़रदोश्त धर्म पूरे क्षेत्र में प्रचलित था, लेकिन इस्लामी शासन के आने के बाद धर्मांतरण का दौर शुरू हुआ।

जो लोग इस्लाम अपनाने से इनकार करते थे, उन्हें प्रताड़ित किया गया। इसी कारण कई पारसी समुदायों ने ईरान छोड़ दिया और भारत के गुजरात तट पर आकर बस गए। आज भी ये “पारसी” के रूप में भारत की सांस्कृतिक और आर्थिक उन्नति में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।

ईरान में अधिकांश लोगों ने धीरे-धीरे इस्लाम स्वीकार किया, लेकिन वह प्रारंभ में सुन्नी इस्लाम ही था। बाद में, इस्लामी आध्यात्मिक आंदोलन सूफ़ीवाद ने यहाँ गहरी जड़ें जमाईं। सूफ़ी कवियों जैसे रूमी और हाफ़िज़ की रचनाएँ आज भी फारसी साहित्य की धरोहर हैं।

शिया सत्ता का उदय और फारसी पहचान का पुनर्निर्माण

16वीं सदी में एक बड़ा बदलाव तब आया जब सफ़वी वंश ने सत्ता संभाली। ये शासक तुर्क मूल के थे, लेकिन उन्होंने शिया इस्लाम को राज्य धर्म घोषित किया। इस निर्णय ने ईरान को इस्लामी दुनिया में एक विशेष शिया पहचान प्रदान की, जो आज भी कायम है।

हालांकि बाद में कुछ कालखंडों में सुन्नी शासकों का शासन भी आया, जैसे नादिर शाह और कुछ अफ़ग़ान नेता, लेकिन सफ़वियों द्वारा दी गई धार्मिक पहचान ईरान की आत्मा में बस चुकी थी। यही शिया-सुन्नी विभाजन आज भी ईरान और अरब देशों के संबंधों में निर्णायक भूमिका निभाता है।

19वीं शताब्दी में ईरान पर यूरोपीय प्रभाव और राष्ट्रीय जागृति

यूरोपीय शक्तियाँ (विशेष रूप से ब्रिटेन और रूस) 19वीं शताब्दी में ईरान की आंतरिक राजनीति में प्रवेश करने लगीं। उन्होंने यहाँ के तेल संसाधनों पर अधिकार पाने के लिए हस्तक्षेप किया। हालाँकि ईरान औपचारिक रूप से कभी उपनिवेश नहीं बना, परंतु उसकी आर्थिक और विदेश नीति पर इन शक्तियों का नियंत्रण बढ़ता गया।

यह दौर ईरानी जनता में असंतोष, राष्ट्रवाद, और सांस्कृतिक पुनर्जागरण की भावना लेकर आया। बुद्धिजीवी वर्ग, धार्मिक नेता, और युवाओं ने एक नई ईरानी पहचान की तलाश शुरू की।

20वीं सदी के मध्य में शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी का शासन था, जो पश्चिमी देशों के समर्थक थे। उनका शासन आधुनिकरण की ओर तो बढ़ रहा था, लेकिन उसमें लोकतंत्र और सामाजिक न्याय की भारी कमी थी।

आयतुल्ला खुमैनी के नेतृत्व में एक विशाल जनांदोलन खड़ा हुआ, जिसने 1979 में एक ऐतिहासिक इस्लामी क्रांति को जन्म दिया। राजशाही का अंत हुआ और ईरान एक इस्लामी गणराज्य बन गया, जहाँ शरिया कानून के तहत शासन होने लगा। यह परिवर्तन केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक स्तर पर भी गहरा था। क्रांति के कुछ ही वर्षों बाद ईरान को ईराक के साथ 8 साल का युद्ध (1980–1988) झेलना पड़ा। इस युद्ध में लाखों लोगों की जानें गईं और ईरान की अर्थव्यवस्था को बहुत नुकसान हुआ।फिर भी, इस संघर्ष ने ईरान को एक शिया शक्ति के रूप में इस्लामी दुनिया में स्थायी रूप से स्थापित कर दिया।

निष्कर्ष

आज का ईरान धार्मिक, राजनीतिक, और वैश्विक दृष्टि से एक अद्वितीय राष्ट्र है, जिसकी जड़ें उसकी प्राचीन सभ्यता में हैं और जिसकी पहचान उसकी इस्लामी क्रांति और सांस्कृतिक अस्मिता से जुड़ी हुई है।

ईरान का इतिहास सिर्फ एक भू-भाग का इतिहास नहीं है, बल्कि यह मानव सभ्यता की निरंतर चलती कहानी है, जिसमें आदिम मानव से लेकर दर्शन, धर्म, युद्ध, और क्रांति तक सब समाहित है। यह वह भूमि है जहाँ विचारों ने तलवारों से लड़ाई जीती, और जहाँ धर्म ने बार-बार सत्ता की परिभाषा बदली। ईरान की गाथा न केवल ऐतिहासिक है, बल्कि वह हर उस समाज के लिए एक सबक है जो अपनी जड़ों से जुड़कर भविष्य गढ़ना चाहता है।

ईरान की क्रांतियों के पीछे छुपा सच: क्या अधूरा धर्म समाज को विनाश की ओर ले जाता है?

ईरान का इतिहास बार-बार यह सिद्ध करता है कि जब भी समाज केवल धार्मिक औपचारिकताओं या सत्ता के नाम पर धर्म को अपनाता है, तब वहां संघर्ष, धर्मांतरण, और सामाजिक विघटन होते हैं। संत रामपाल जी महाराज स्पष्ट करते हैं कि सच्चा धर्म वह है जो एक ईश्वर को मानते हुए सभी प्राणियों के साथ समानता, करुणा और न्याय की शिक्षा दे। ज़रदोश्त धर्म हो या इस्लामी क्रांति—इनमें ईश्वर की तलाश थी, परंतु सत्य ज्ञान के अभाव में समाज दिशा से भटक गया।

महराज जी बताते हैं कि केवल सतग्रंथों पर आधारित भक्ति ही समाज को स्थायी शांति और समृद्धि दे सकती है। ईरान जैसे देश, जहाँ धर्म ने राज सत्ता को आकार दिया, वहाँ सही आध्यात्मिक मार्गदर्शन के बिना समाज में उथल-पुथल बनी रही। इसलिए संत रामपाल जी का ज्ञान आज वैश्विक मानवता के लिए सबसे जरूरी मार्गदर्शन है—जो सत्य, समानता और मोक्ष की राह दिखाता है।

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