पुरी की रथ यात्रा मात्र एक धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि आस्था, प्रेम और समर्पण का प्रतीक है। किंतु जब इसे तत्वज्ञान और शास्त्र सम्मत दृष्टिकोण से देखा जाता है, तो इसके भीतर छिपे गूढ़ रहस्यों का उद्घाटन होता है, जो साधारण जनमानस से छिपे होते हैं। तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज ने इस यात्रा की वास्तविकता को शास्त्रों के अनुसार स्पष्ट किया है, जिससे यह सिद्ध होता है कि यह आयोजन वास्तविक मोक्ष का मार्ग नहीं बल्कि एक परंपरागत लोकाचार है, जो परमात्मा प्राप्ति की सही विधि से भटका सकता है। इस लेख में हम रथ यात्रा के सभी प्रमुख पहलुओं की विवेचना संत रामपाल जी महाराज द्वारा दिए गए सत्य ज्ञान के आलोक में करेंगे।
जगन्नाथ रथ यात्रा 2025: मुख्य बिंदु
- सांस्कृतिक उत्सव बनाम आध्यात्मिक सत्य: रथ यात्रा पर तत्वदर्शी दृष्टिकोण
- नंदीघोष से दर्पदलन तक: रथों की बनावट, रस्सियों के नाम और आध्यात्मिक सत्य
- परंपरा बनाम तत्वज्ञान: छेरा पन्हारा और हेरा पंचमी की वास्तविकता
- अखंड हृदय की कथा: श्रीकृष्ण के ‘अजन्मा’ स्वरूप पर संत दृष्टिकोण
- आस्था या अंधविश्वास: मूर्ति परिवर्तन की अदृश्य परंपरा
- रथ यात्रा में समरसता या बाह्य आडंबर: जानिए मोक्ष का सच्चा मार्ग
- स्कंद पुराण की रथ यात्रा कथा: वेद बनाम पुराण
- शास्त्रों के प्रकाश में रथ यात्रा का रहस्य और मोक्ष का मार्ग
रथ यात्रा: एक सांस्कृतिक उत्सव या आध्यात्मिक साधना?
हर वर्ष आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को पुरी, उड़ीसा में विशाल रथ यात्रा निकाली जाती है। इसमें भगवान जगन्नाथ, उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा को रथ पर सवार कर मुख्य मंदिर से गुंडिचा मंदिर तक ले जाया जाता है। करोड़ों श्रद्धालु इस उत्सव में भाग लेते हैं, रथ खींचते हैं, और इसे मोक्षदायी मानते हैं।
तत्वज्ञान के अनुसार मूल्यांकन:
संत रामपाल जी महाराज बताते हैं कि कोई भी धार्मिक अनुष्ठान यदि शास्त्रविरुद्ध है, तो उससे मोक्ष नहीं बल्कि अधोगति ही प्राप्त होती है। *श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24* में गीता ज्ञानदाता भगवान कहते हैं:
“यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य, वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिं न आप्नोति, न सुखं न परां गतिम्॥”
अर्थ: जो शास्त्र की विधि को छोड़कर मनमाने तरीके से पूजा करता है, वह न तो सिद्धि प्राप्त करता है, न सुख और न ही परमगति (मोक्ष)। अतः यह रथ यात्रा चाहे जितनी भावनात्मक या सांस्कृतिक हो, यह शास्त्र सम्मत साधना नहीं है।
रथों की बनावट और रस्सियों के नाम: क्या इसका कोई आध्यात्मिक रहस्य है?
- जगन्नाथ का रथ (नंदीघोष)*: 16 पहिए, रस्सी: शंखाचुड़ा नाड़ी
- बलभद्र का रथ (तालध्वज)*: 14 पहिए, रस्सी: बासुकी
- सुभद्रा का रथ (दर्पदलन)*: 12 पहिए, रस्सी: स्वर्णचूड़ा नाड़ी
लोग इन रस्सियों को छूना सौभाग्य मानते हैं। लेकिन क्या यह सच में आत्मा की मुक्ति का मार्ग है?
संत रामपाल जी महाराज का कथन:
रस्सी छूने या रथ खींचने से यदि मोक्ष संभव होता, तो फिर वेद और गीता में बार-बार वर्णन क्यों किया गया कि केवल *सद्गुरु द्वारा दीक्षा लेकर, नाम जाप और साधना* करने से ही मुक्ति मिलती है?
अथर्ववेद काण्ड 4 अनुवाक 1 मंत्र 7:
“त्रिणाचिकेतं सन्तं नाम त्रयमुत्तमम्।
तेन संसार सागरं तरन्ति जनाः।”
अर्थात: जो तत्वज्ञानी गुरु से प्राप्त तीन मंत्रों का जाप करता है, वही जीव इस संसार रूपी सागर को पार करता है।
इसलिए रथ खींचना एक सांस्कृतिक कृत्य हो सकता है, पर मोक्ष का साधन नहीं।
छेरा पन्हारा और हेरा पंचमी की रस्में – क्या ये सच में सेवा भाव दर्शाती हैं?
रथ यात्रा के पहले दिन पुरी के राजा के द्वारा“छेरा पन्हारा” रस्म निभाई जाती है, जिसमें राजा के द्वारा सोने के झाड़ू से रथ को साफ किया जाता है। इसे विनम्रता के प्रतीक के रूप में माना जाता है।
“हेरा पंचमी” के दिन देवी लक्ष्मी नाराज़ होकर गुंडिचा मंदिर जाती हैं, जिससे प्रतीकात्मक रूप से पारिवारिक भावनाओं का प्रदर्शन होता है।
शास्त्र सम्मत दृष्टिकोण:
तत्वदर्शी सन्त कहते हैं कि पूजा और साधना का उद्देश्य आत्मा की मुक्ति है, न कि नाटकीय परंपराओं का निर्वाह। यह दिखावटी आडंबर न तो भगवान को प्रसन्न करता है और न ही साधक को लाभ देता है।
यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 10:
“अविद्यायाम् अन्तरे वर्तमानाः, स्वयं धीराः पण्डितं मन्यमानाः।”
अर्थात: जो शास्त्रों को न जानकर परंपराओं को ज्ञान मान लेते हैं, वे अंधकार में रहते हैं।
मूर्ति में श्रीकृष्ण का हृदय – आस्था या अंधश्रद्धा?
मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण का हृदय, मृत्यु के बाद भी नहीं जला था, जिसे लकड़ी के रूप में समुद्र तट पर पाया गया। वही बाद में मूर्ति में स्थापित किया गया।
संत रामपाल जी महाराज द्वारा विवेचन:
ईश्वर कभी मरता नहीं, उसका हृदय कभी जलता या सड़ता नहीं। ऐसा मानना खुद श्रीकृष्ण के उपदेशों का खंडन है।
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 श्लोक 20:
“न जायते म्रियते वा कदाचित्…”
आत्मा (और परमात्मा) का कभी जन्म या मरण नहीं होता।
इसलिए “हृदय न जलना” जैसी कहानियाँ शास्त्र विरोधी हैं।
नव कलेवर: मूर्ति परिवर्तन की प्रक्रिया – रहस्य या डर?
हर 12 साल में मूर्ति बदली जाती है, लेकिन मूर्ति के अंदर की लकड़ी को नहीं छुआ जाता। रात को बिजली बंद कर पुजारी आँखें बंद करके मूर्ति बदलते हैं क्योंकि मान्यता है कि उसे देखने पर मृत्यु निश्चित है।
तत्वदर्शी संत का तर्क:
क्या यह ईश्वर की पूजा है या डर की? क्या परमात्मा इतना भयावह है कि उसे देखने से मृत्यु हो जाती है?
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 4 श्लोक 34:
“तत्त्ववित्तु महर्षयः ज्ञानिनः तत्त्वदर्शिनः।”
तत्वदर्शी संत परमात्मा के स्वरूप को जानकर, डर नहीं बल्कि शांति का मार्ग बताते हैं।
ईश्वर प्रेम का प्रतीक है, भय का नहीं।
क्या सभी को रथ खींचने का अधिकार है?
इस यात्रा की एक विशेषता यह बताई जाती है कि कोई भी जाति, धर्म या देश का व्यक्ति रथ खींच सकता है, जिससे यह समरसता और समानता का प्रतीक माना जाता है।
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संत रामपाल जी महाराज का स्पष्ट विचार
वास्तविक समानता और मोक्ष का मार्ग तब मिलेगा जब सबको एक समान नामदान (initiation) दी जाए, जैसा *श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 18 श्लोक 66* में गीता ज्ञानदाता ने बताया है:
“सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।”
अर्थात सभी कर्मकांड छोड़कर केवल एक पूर्ण परमात्मा की शरण में जाओ।
रथ खींचना, दर्शनों की भीड़, पूजा में लिप्त होना — ये सब बाह्य साधनाएँ हैं। सच्चा भक्ति मार्ग तत्वदर्शी संत की शरण में जाकर सच्चा तत्वज्ञान ज्ञान प्राप्त कर शास्त्रानुकूल साधना करना है।
क्या स्कंद पुराण में रथ यात्रा का प्रमाण पर्याप्त है?
रथ यात्रा की उत्पत्ति स्कंद पुराण के एक प्रसंग से मानी जाती है जिसमें कहा गया कि सुभद्रा नगर भ्रमण की इच्छा करती हैं और जगन्नाथ तथा बलभद्र उन्हें लेकर जाते हैं।
लेकिन शास्त्र क्या कहते हैं?
वेद और गीता को सर्वोपरि प्रमाण माना गया है। पुराणों की कथाएं प्रेरणात्मक हो सकती हैं लेकिन वेदों के विरुद्ध होने पर उन्हें असत्य माना जाता है।
गुरुग्रंथ साहिब, राग बिलावल (पृष्ठ 821):
“वेद कतेब कहो मत झूठे, झूठा जो न विचारे।”
अर्थात: वेद कभी झूठे नहीं होते, झूठा वह है जो उनका मनन नहीं करता।
अतः रथ यात्रा की उत्पत्ति यदि स्कंद पुराण में है और यह वेद-विरोधी है, तो यह ईश्वर प्राप्ति का मार्ग नहीं हो सकता।
निष्कर्ष: क्या रथ यात्रा से मोक्ष संभव है?
संपूर्ण विवेचना से यह स्पष्ट होता है कि:
- रथ यात्रा एक सांस्कृतिक आयोजन है, आध्यात्मिक नहीं।
- शास्त्रों के अनुसार, केवल तत्वदर्शी संत से नाम दीक्षा लेकर ही मोक्ष संभव है।
- मूर्ति पूजा, परंपराएं, झाड़ू, रथ खींचना — ये सभी शास्त्र विरुद्ध आडंबर हैं।
- केवल पूर्ण गुरु ही पूर्ण परमात्मा की ओर ले जा सकता है।
क्या है समाधान?
संत रामपाल जी महाराज ने शास्त्रों का गूढ़ ज्ञान देकर स्पष्ट किया है कि:
परमेश्वर कबीर जी ही पूर्ण ब्रह्म हैं, वही वास्तविक जगन्नाथ हैं, जिनकी प्राप्ति केवल तत्वदर्शी संत के मार्गदर्शन से संभव है।
संत रामपाल जी महाराज वही तत्वदर्शी संत हैं, जो वेद, गीता, कुरान, बाइबिल और गुरु ग्रंथ साहिब के प्रमाणों के साथ परमात्मा प्राप्ति की विधि समझाते हैं।
जो भी साधक इनके बताए अनुसार साधना करता है, वही जन्म-मरण से मुक्त होता है।
यदि आप भी लोकपरंपराओं से हटकर शास्त्र सम्मत साधना अपनाना चाहते हैं, तो संत रामपाल जी महाराज से निःशुल्क नामदीक्षा लें और सच्ची भक्ति शुरू करें।
वास्तविक रथ यात्रा वही है, जो आत्मा को परमात्मा तक पहुंचाए। बाकी सब एक भ्रम है।
विस्तृत जानकारी हेतु पढ़ें:
गीता तेरा ज्ञान अमृत
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