गूगल ने डॉ. कमल रणदिवे (Kamal Ranadive) की 104 वीं जयंती पर बनाया डूडल

Kamal Ranadive [Hindi] Google ने डॉ. कमल रणदिवे की जयंती पर बनाया डूडल

Google ने सोमवार को भारतीय सेल जीवविज्ञानी डॉ. कमल रणदिवे (Kamal Ranadive) की 104 वीं जयंती के अवसर पर एक Doodle बनाया है। यह Doodle उन्हें समर्पित किया गया है। यह Doodle एक भारतीय कलाकार इब्राहिम रयिन्ताकथ द्वारा बनाया गया है जिसमें रणदिवे को माइक्रोस्कोप की ओर देखते हुए दिखाया गया है। कमल रणदिवे 1917 में पुणे में पैदा हुईं थी। उनके पिता ने उन्हें मेडिकल एजुकेशन के लिए प्रेरित किया लेकिन वो बायलॉजी में ही जाना चाहते थीं। सन् 1949 में उन्होंने भारतीय कैंसर अनुसंधान केंद्र (ICRC) में एक रिसर्चर के रूप में काम करते हुए कोशिका विज्ञान, कोशिकाओं के अध्ययन में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। बाल्टीमोर, मैरीलैंड, यूएसए में जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय में फेलोशिप की। इसके बाद, वह मुंबई लौट आईं। ICRC में उन्होंने देश की पहली टीशू कल्चर लैबोरेट्री की स्थापना की।

Kamal Ranadive [Hindi] Google ने डॉ. कमल रणदिवे की जयंती पर बनाया डूडल

बचपन से पढ़ाई में तेज कमल रणदिवे (Kamal Ranadive)

डॉ रणदिवे का जन्म 8 नवंबर 1917 को पुणे में हुआ था. उनके पिता दिनकर दत्तात्रेय समर्थ बायोलॉजिस्ट थे और पूणे के फर्ग्यूसन कॉलेज में पढ़ाया करते थे. पिता ने कमल की पढ़ाई पर विशेष ध्यान दिया और कमल खुद पढ़ाई में बहुत कुशाग्र थीं. उनकी आरंभिक शिक्षा पुणे में हुजूरपागा के गर्ल्स स्कूल में हुई थी.

चिकित्सा की जगह जीवविज्ञान

कमल के पिता चाहते थे कि वे चिकित्सा के क्षेत्र में पढ़ाई करें और उनकी शादी एक डॉक्टर से हो, लेकिन कमल ने फर्ग्यूसन कॉलेज में ही जीवविज्ञान के लिए बीएससी की पढाई डिस्टिंक्शन के साथ पूरी की. इसके बाद उन्होंने पूणे के कृषि कॉलेज में पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई की. इसके बाद उन्होंने जेटी रणदिवे से विवाह किया जो पेशे से गणितज्ञ थे जिन्होंने उनकी पोस्ट ग्रोजुएशन की पढ़ाई में बहुत सहायता की थी.

मुंबई से पीएचडी की पढ़ाई

उत्तरोस्नातक में उनका विषय साइनोजेनिक्टस ऑफ एनोकाके था जो साइटोलॉजी की एक शाखा, साइटोलॉजी उनके पिता का भी विषय था. विवाह के बाद कमल मुंबई आने आ गईं जहां उन्होंने  टाटा मेमरियल हॉस्पिटल में काम शुरु कर दिया. और बांबे यूनिवर्सिटी में पीएचडी की पढ़ाई भी करने लगीं.

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टिशू कल्चर तकनीक पर काम

पीएचडी पूरी करने के बाद डॉ कमल ने पोस्ट डॉक्टरल शोध के लिए टीशू कल्चर तकनीक पर बाल्टोर की जान हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी के जॉर्ज गे की लैब में टीशू कल्चर तकनीक पर काम किया और भारत आकर भारतीय कैंसर रिसर्च सैंटर से जुड़ कर अपने प्रोफेशनल करियर शुरु किया. उन्होंने मुंबई में एक्सपेरिमेंटल बायोलॉजी लैबोरेटरी और टिशू कल्चर लैबोरेटरी की स्थापना में अहम योगदान दिया.

Credit: Pixabay

कमल रणदिवे (Kamal Ranadive) ने कैंसर पर की थी शोध

डॉ कमल 1966 से लेकर 1970 के बीच में भारतीय कैंसर अनुसंधान केंद्र के निदेशक रहीं. यहीं उन्होंने टिशू कल्चर मीडिया और उससे संबंधित रिएजेंट्स विकसित किए. उन्होंने केंद्र में कार्सिजेनोसिस, सेल बायोलॉजी और इम्यूनोलॉजी के शोध शाखाएं खोलीं. उनकी शोध उपलब्धियों में कैंसर की पैथोफिजियोलॉजी पर शोध  प्रमुख था जिससे बल्ड कैंसर, स्तन कैंस और इसोफेगल कैंसर जैसी बीमारियों के कारण पता लगाने में सहायता मिली.

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भारतीय महिला वैज्ञानिकों के लिए प्रेरणा

इसके अलावा उन्होंने कैंसर, हारमोन और ट्यूमर वायरस के बीच संबंधों का पता लगाया. वहां कोढ़ जैसी असाध्य मानी जाने वाली बीमारी का टीका भी उनके शोध के कारण संभव हुआ जो कोढ़ के बैक्टीरिया से संबंधित था.  वे  कैंसर पर काम करने वाली भारतीय महिला वैज्ञानिकों के लिए बड़ी प्रेरणा बनीं.

Credit: Drishti IAS

देश की पहली टीशू कल्चर लैबोरेट्री की स्थापना की

रणदिवे ने वर्ष 1949 में भारतीय कैंसर अनुसंधान केंद्र (आईसीआरसी) में एक शोधकर्ता के रूप में कार्य किया। यहां उन्होंने कोशिका विज्ञान और कोशिकाओं के अध्ययन में डॉक्टरेट की उपाधि भी प्राप्त की। इसके अलावा उन्होंने बाल्टीमोर, मैरीलैंड और यूएसए के जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय में फेलोशिप भी की। इसके बाद उन्होंने मुंबई वापस लौट कर आईसीआरसी में देश की पहली टीशू कल्चर लैबोरेट्री की स्थापना की।

कमल रणदिवे (Kamal Ranadive) ने रिटायरमेंट के बाद भी गांवों में किया काम

रिटायरमेंट के बाद डॉ. रणदिवे ने महाराष्ट्र के ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर काम किया। यहां उन्होंने महिलाओं को स्वास्थ्यकर्मी की ट्रेनिंग, स्वास्थ्य और स्वास्थ्य और पोषण से जुड़ी शिक्षा भी दी। आईडब्ल्यूएसए के आज देश में 11 खंड हैं और इसके द्वारा विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं को छात्रवृत्ति भी दी जाती है। 

पद्म भूषण से सम्मानित

कमल की प्रारंभिक शिक्षा पुणे के गर्ल्स स्कूल, हुज़ूरपागा में हुई।  उनके पिता चाहते थे कि दसवीं के बाद वे मेडिकल पढ़ें, उन्होंने फ़र्गुसन कॉलेज से बॉटनी और जूलॉजी में बीएससी की। 1960 के दशक में, उन्होंने मुंबई में भारतीय कैंसर अनुसंधान केंद्र में भारत की पहली ऊतक संस्कृति अनुसंधान प्रयोगशाला की स्थापना की। उन्हें चिकित्सा के लिए 1982 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।

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