कार्यक्रम का परिचय
चित्तौड़गढ़ दुर्ग में 25 नवंबर को मेवाड़ के 77वें महाराणा और एकलिंग दीवान के रूप में विश्वराज सिंह मेवाड़ का राजतिलक हुआ। इस विशेष अवसर पर देशभर के पूर्व राजघरानों के सदस्य, रिश्तेदार और गणमान्य नागरिक शामिल हुए। फतह प्रकाश महल प्रांगण में आयोजित इस कार्यक्रम में प्राचीन परंपराओं का पालन किया गया।
यज्ञ और गद्दी की पूजा
विश्वराज सिंह मेवाड़ ने सर्वप्रथम फतह प्रकाश महल प्रांगण में पहुंचकर यज्ञ में पूर्णाहुति दी। इसके बाद उन्होंने गद्दी की पूजा की। गद्दी की पूजा करने के पश्चात, सलूंबर रावत देवव्रत सिंह ने विश्वराज सिंह मेवाड़ को हाथ पकड़कर गद्दी पर बैठाया। इस दौरान सलूंबर रावत देवव्रत सिंह ने मयान से तलवार निकालकर अंगूठा काटकर उसके रक्त से विश्वराज सिंह मेवाड़ का राजतिलक किया। राजतिलक होते ही मेवाड़ के तोपची ने 21 तोपों की सलामी दी। तिलक के समय शंखनाद होने लगे और इस दौरान पंडित और बटुक लगातार मंत्रोच्चार करते रहे। पूरे पांडाल में एकलिंग नाथ भगवान की जयकार होने लगी।
प्राचीन परंपराओं का निर्वहन
इस अवसर पर विभिन्न राज परिवारों की निम्न परंपराओं का पालन किया गया:
- सलूंबर के रावत देवव्रत सिंह ने तलवार से अंगूठा काटकर रक्त से राजतिलक किया।
- मेवाड़ के तोपची खानदान के आमेट निवासी अब्दुल रहमान ने 21 तोपों की सलामी दी।
- फतह प्रकाश महल प्रांगण में हजारों की संख्या में पहुंचे सर्वसमाज के लोगों की उपस्थिति में राजतिलक संपन्न हुआ।
लोकतंत्र में प्रतीकात्मक राजतिलक
लोकतंत्र आने के बाद भले ही राजशाही खत्म हो गई हो, लेकिन प्रतीकात्मक रूप से यह रस्म अभी भी निभाई जाती है। यह परंपरा मेवाड़ की ऐतिहासिक धरोहर को संजोए रखने और उसे जीवित रखने का एक प्रयास है।
मेवाड़ के महाराणा वंश का ऐतिहासिक परिदृश्य
गुहिल राजवंश की स्थापना: गुहिल राजवंश की स्थापना गुहिल राजा गुहादित्य ने 566 ई. में की। इसके पश्चात नागादित्य के पुत्र कालभोज ने 727 ई. में गुहिल राजवंश की कमान संभाली और उन्हें बप्पा रावल के नाम से जाना गया। बप्पा रावल एक अत्यंत प्रतापी शासक थे जिनकी देवीय शक्तियों की लोक कथाएँ और मान्यताएँ प्रचलित हैं। उन्होंने अपनी शौर्यता से चित्तोड़ और आसपास के क्षेत्रों को अरबी आक्रमणों से मुक्त करवाया।
हमीर और महाराणा की उपाधि: 38वें वंशज हमीर ने अपनी शौर्य, पराक्रम और कूटनीति से मेवाड़ राज्य को बनवीर सोनगरा से मुक्त कर उसकी खोई प्रतिष्ठा पुनः स्थापित की और “महाराणा” की उपाधि धारण की। तभी से मेवाड़ नरेश इस उपाधि का उपयोग करते आ रहे हैं।
महाराणा प्रताप का वीरगाथा: 49वें वंशज के रूप में महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 को कुंभलगढ़ दुर्ग में हुआ। उन्होंने अपने शौर्य और पराक्रम से पूरे महाराणा वंश का नाम रोशन किया। हल्दीघाटी के युद्ध में अपनी वीरता का परिचय देकर मुगलों से लोहा लिया। जीवन भर प्रताप ने अपनी भूमि की रक्षा के लिए संघर्ष किया और अंततः 19 जनवरी 1597 को उनका निधन हुआ।
आधुनिक काल में राजतिलक
25 नवंबर को मेवाड़ के 77वें महाराणा के रूप में विश्वराज सिंह मेवाड़ का राजतिलक चित्तौड़गढ़ दुर्ग में हुआ। इस आयोजन ने एक बार फिर मेवाड़ की ऐतिहासिक धरोहर को सजीव किया और परंपराओं को जीवित रखने का संदेश दिया।
राजधर्म और भक्ति
राजा लोग इस जीवन में भक्ति न करके केवल राज्य व्यवस्था में ही व्यस्त रहते हैं, जिससे उनका जीवन बेगार में गुजर जाता है। पूर्व जन्म के कर्मों के आधार पर राजा बनते हैं और वर्तमान में उन्हीं पुण्यों को खर्च कर रहे होते हैं। जनता को लगता है कि राजा ऐश कर रहा है, लेकिन आध्यात्मिक दृष्टि से वह बेगार कर रहा है। यदि व्यक्ति पूर्ण गुरु से दीक्षा लेकर भक्ति नहीं करता है, तो उसे चाहे पूरा राज्य भी मिल जाए, उसका कोई लाभ नहीं होता। इसलिए राजा हो या प्रजा, सभी को सच्ची भक्ति करनी चाहिए ताकि उनका भविष्य उज्जवल हो सके।