प्रसिद्ध तीर्थ धामों की स्थापना का रहस्य हुआ उजागर जिससे आप आजतक अनजान थे!!

प्रसिद्ध तीर्थ धामों की स्थापना का रहस्य हुआ उजागर जिससे आप आजतक अनजान थे!!

भारत में प्रसिद्ध तीर्थ धामों की स्थापना कैसे हुई तथा क्या इसका इतिहास इसके बारे में ही आज हम आपको विस्तृत जानकारी देंगे। तो आप  से निवेदन है कि आप इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें, निश्चय ही आप एक निकनायक मोड पर पहुंचेंगे। 

  • तीर्थ व धाम कैसे बने?
  • कैसे हुई वैष्णो देवी और नैना देवी की स्थापना?
  • अमरनाथ क्यों प्रसिद्ध है?
  • केदारनाथ की वास्तविक सच्चाई क्या है? 
  • क्या पवित्र गंगा में नहाने से साधक के पाप कर्म कट सकते है?
  • किन वेदों में प्रमाण है कि तीर्थ व धामों पर जाना चाहिए?
  • तीर्थ धाम जाने से क्या लाभ मिलते हैं ?
  • यदि तीर्थ धर्मों पर मोक्ष संभव नहीं है तो वास्तव में मोक्ष किस तरह प्राप्त होता है?

तीर्थ व धाम कैसे बने?

तीर्थ व धाम वे पवित्र स्थान है जहां पर किसी महापुरुष का जन्म या निर्वाण हुआ था या किसी साधक ने साधना की थी या किसी ऋषि या देवी, देवता से जुड़ी यादगारें है तीर्थ। धाम वह स्थान है जो भगवानों की यादगार है या उससे संबंधित स्थान‌। तीर्थ व धाम इस कारण बनाए जाते हैं कि आने वाले लोगों को यह पता चले कि इस स्थान पर क्या हुआ था इसलिए उस स्थान की यादगार बनाने के लिए तीर्थ, धाम बनाए जाते हैं।

कैसे हुई वैष्णो देवी और नैना देवी की स्थापना ?

जब भगवान विष्णु के अवतार भगवान राम धरती पर सीता माता को ढूंढ रहे थे। तब उनको शिवलोक से भगवान शिव जी ने प्रणाम किया। पार्वती जी ने उनसे राम जी को प्रणाम करने का कारण पूछा। उन्होंने बताया कि वह भगवान है। परंतु पार्वती जी को इस बात पर विश्वास नहीं हुआ। पार्वती को विश्वास इस कारण नहीं हुआ क्योंकि उनकी दृष्टि में भगवान किसी के वियोग में नहीं रो सकते परंतु जब श्री रामचंद्र जी को सीता माता के वियोग में रोता देखा व दर-दर भटकते हुए देखा। तब उनको यह यकीन ही नहीं हुआ कि वह भगवान है। इसलिए उन्होंने कहा कि मैं उनकी परीक्षा लूंगी। यह सुन भगवान शिव ने उनसे परीक्षा लेने के लिए मना कर दिया। तब तो पार्वती जी ने परीक्षा लेने के लिए मना कर दिया परंतु शिव जी के वहां से जाने के बाद पार्वती जी सीता रूप धारण करके भगवान राम के पास जाती है। तब राम जी उन्हें पहचान लेते हैं वह कहते हैं कि हे ! दक्ष पुत्री माया आज शिव जी को कहां छोड़ आई। यह सुन पार्वती जी शर्मिंदा हुई और अपने वास्तविक रूप (पार्वती रूप)में आ गई, और बोली कि भगवान शिव आपको ठीक ही प्रणाम कर रहे थे। आप तो सच में भगवान हो और वहां से वापस शिवलोक आ गई। 

इसके बाद भगवान शिव जब वापस आए तब उनको अंदर से प्रेरणा हुई कि कहीं पार्वती परीक्षा लेकर तो नहीं आ गई। पूछने पर उन्होंने हा कर दिया। इस पर उन्होंने पार्वती जी को कहा कि आप मेरी मां का रूप बनकर आए हो और बड़े भाई की पत्नी अर्थात् भाभी माता तुल्य होती है और आप मेरे बड़े भाई विष्णु की पत्नी लक्ष्मी का अवतार सीता रूप धारण कर चुके हो तो अब आप मुझे पत्नी रूप में स्वीकार नहीं हो। इसके बाद उन्होंने पार्वती जी से पति-पत्नी व्यवहार रखना छोड़ दिया। 

अंत में दुखी होकर पार्वती अपने पिता राजा दक्ष के घर चली गई। उन्होंने उस समय हवन यज्ञ करवा रखी थी। जब वह वहां प्रवेश करती है तो वह देखती है कि उसके पिता ने उसकी सभी बहनों को व उनके पतियों को यज्ञ में आमंत्रित किया हुआ था। परंतु पार्वती और शिव को आमंत्रित नहीं करा और ना ही उनके लिए कोई स्थान छोड़ा। इस बात से दुखी होकर वह जब अपने पिता के पास गई। तब उनके पिता कहते हैं कि उन्हें किसने बुलाया। राजा दक्ष ने पार्वती को इस कारण से यज्ञ में नहीं बुलाया था क्योंकि वह उनसे रुष्ट थे। पार्वती जी ने अपनी इच्छा अनुसार विवाह करा था। राजा दक्ष अपनी पुत्री का विवाह शिव जी से नहीं करना चाहते थे। परंतु पार्वती जी ने राजा दक्ष की बात का उल्लंघन करते हुए भगवान शिव से विवाह कर लिया। जिस पर राजा दक्ष उन दोनों से नाराज थे। तथा उनको यज्ञ में भी नहीं बुलाया था। यह देख पार्वती जी को बहुत दुख हुआ और वह हवन कुंड में कूद गई। 

इस बारे में जब भगवान शिव को पता चला तब उन्होंने क्रोधित होकर अपनी जटाओं से एक बाल तोड़कर वीरभद्र की उत्पत्ति करी तथा उसे आदेश दिया कि वह राजा दक्ष की गर्दन काट कर उनका वध कर दे। इस आदेश को पाकर वीरभद्र राजा दक्ष के पास जाकर उनकी गर्दन काट देता है। ऋषियों के आग्रह पर भगवान शिव ने कहा कि किसी भी जानवर का सिर काटकर ले आओ। तब ऋषियों ने बकरे का सिर लाकर दिया तथा भगवान शिव ने अपनी वचन शक्ति से बकरे का सिर राजा दक्ष के धड़ पर लगा दिया और राजा दक्ष पुनः जीवित हो गए। इसके बाद शिवजी पार्वती जी के कंकाल को जो कि हवन कुंड में बच गया था। उसे लेकर (10000) दस हजार वर्ष तक पार्वती के वियोग में भटकते रहे। वह पार्वती के मोह में उस कंकाल को ही पार्वती मानकर यहां-वहां भटकते रहते थे। शिवजी की ऐसी दशा देख भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से पार्वती जी के कंकाल को नष्ट कर दिया। जहां पर सिर गिरा वहां पर नैना देवी की स्थापना हुई और जहां पर धड़ गिरा वहां वैष्णो देवी की स्थापना हुई। इस प्रकार इन दोनों तीर्थ की स्थापना हुई।

अमरनाथ क्यों प्रसिद्ध है?

पौराणिक कथाओं के अनुसार जब भगवान शिव माता पार्वती को परमात्मा की भक्ति के लिए प्रेरणा करते थे। तब माता पार्वती यह कह कर टाल देती थी कि आप ही देवों के देव महादेव हो। आप से भी भला ऊपर कोई परमात्मा है ? मेरे लिए तो आप ही पूर्ण परमात्मा है। मुझे तो परमात्मा ही प्राप्त हुए हैं। तब भगवान शिव यह सुनकर चुप हो जाते थे क्योंकि  पार्वती जी को अंतरात्मा से भक्ति में रुचि नहीं थी। भगवान शिव पार्वती जी को भक्ति के लिए बार-बार इसलिए प्रेरणा करते थे। क्योंकि वह 107 बार मर चुकी थी और यह उनका 108 वां जन्म था।

एक दिन नारद जी माता पार्वती के पास आते हैं और उनको प्रेरणा करते हुए बोलते हैं कि माता आपके घर में तो ऐसा अमर मंत्र है। उसे प्राप्त करके आप अमर क्यों नहीं हो जाती? क्यों जन्म-मृत्यु के चक्कर में पड़ी हो? यह सुनकर माता पार्वती को अंदर से संदेह होता है। वह इस विषय में नारद जी से संपूर्ण जानकारी प्राप्त करना चाहती थी। इसलिए उनसे पूछती है कि आप किस विषय में बात कर रहे हैं? तब नारद जी कहते हैं कि भगवान शिव के पास ऐसा मूल मंत्र है जिसे प्राप्त करके आप अमर हो सकती हो। भगवान शिव जिस कंकाल की माला को अपने गले में रखते है, वह आप ही के सिर की हैं। यह कहकर नारद जी वहां से चले जाते हैं। 

थोड़ी देर बाद भगवान शिव जब वापस अपने घर पर आते हैं तो वह देखते हैं कि आज पार्वती जी का स्वभाव अलग है। वह बदली‌‍- बदली सी लग रही थी। भगवान शिव को देखकर पार्वती जी उनसे पूछती है कि हे! भोलेनाथ क्या आप मुझसे प्रेम नहीं करते? आपने वह मंत्र मुझे क्यों नहीं दिया जिससे मैं अमर हो सकती हूं। वह भगवान शिव से यह भी पूछती है कि जो आपने अपने गले में सिर के कंकाल की माला पहनी है। क्या वह मेरी ही है? जिस पर भगवान शिव उत्तर देते हुए कहते हैं कि हां यह तुम्हारे ही है और यह बात नहीं है कि मैं तुमसे प्रेम नहीं करता, मैं तुम्हें यह मंत्र देना चाहता था। परंतु जब तक तुम्हारे अंदर से इसे पाने की अटूट श्रद्धा ना हो तब तक यह मंत्र किसी काम का नहीं है। उदाहरण देते हुए भगवान शिव कहते हैं कि जैसे समुद्र में सीप अपना मुंह बंद रखे और उस दौरान चाहे कितनी ही वर्षा हो जाए वह मोती नहीं बना सकता। जब तक उसका मुंह खुला ना हो और स्वाति नक्षत्र की बारिश की बूंद सीप में ना गिरे तब तक वह मोती नहीं बन सकता। उसी प्रकार जब तक आपके मन में इस मंत्र को पाने की अटूट श्रद्धा ना हो तब तक यह मंत्र आपके काम नहीं आ सकता। आज यह मंत्र मैं आपको दूंगा जिससे आप भी अमर हो सकती हो।

फिर भगवान शिव पार्वती जी को लेकर एक सूखे वृक्ष के नीचे बैठ जाते हैं। वह तीन बार ताली बजाते हैं जिससे इतना जोर का धमाका होता है कि आस पास के पशु दूसरे स्थान की ओर भाग जाते हैं। तब वहां भगवान शिव माता पार्वती को वह अमर मंत्र देते हैं जिस स्थान को वर्तमान में हम अमरनाथ के नाम से जानते है।

केदारनाथ की वास्तविक सच्चाई क्या हैं? 

पुरानी कथा के अनुसार दो ऋषि नर और नारायण ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए बड़ी कठिन तपस्या की। इस तपस्या से तीनों लोकों में उनकी चर्चा होने लगी। फलस्वरूप भगवान शंकर भी नर और नारायण की तपस्या से प्रसन्न हुए और उन्होंने प्रत्यक्ष प्रकट होकर ऋषियों को दर्शन दिया। दोनों ऋषि ने भगवान भोलेनाथ के दर्शन से आनंद विभोर होकर स्तुतियों और मंत्रों से उनकी पूजा अर्चना की। भगवान शिव ने अत्यंत प्रसन्न होकर उनसे वर मांगने को कहा। भगवान शंकर की यह बात सुनकर उन दोनों ऋषियों ने देवाधिदेव महादेव से प्रार्थना की।

हे प्रभु! यदि आप प्रसन्न है और वरदान देना चाहते हैं। तो अपने इसी स्वरूप में जगत कल्याण एवं हमारी पूजा प्राप्त करने हेतु यहां स्थित होवे, ताकि जगत का महान उपकर एवं भक्तों के मनोरथ आपके दर्शनों से परिपूर्ण हो। इस प्रकार भगवान शंकर नर- नारायण की भक्ति से प्रसन्न होकर वहां स्थित हुए। भगवान शिव से प्रार्थना करते हुए नर और नारायण ने बोला कि आप जगत के कल्याण हेतु सदा सदा के लिए यहां स्थित हो जाए। ऋषियों की प्रार्थना सुनकर भगवान शिव ने  वहां पर निवास करना स्वीकार किया। भगवान शिव ने ज्योतिर्लिंग रूप में वहां निवास करा तब से ही उस स्थान को एक धाम की तरह पूजा जाने लगा जो वर्तमान में केदारनाथ नाम से प्रसिद्ध है।

महाभारत काल में जब पांडवों द्वारा गोत्र हत्या अर्थात अपने भाई बंधो की हत्या का पाप नाश करने के लिए वेदव्यास जी की आज्ञा से हिमालय पर भगवान शिव की आराधना के लिए गए थे। तब वहां भगवान शिव महिष (भैंस) का रूप धारण करके केदार क्षेत्र में विचरण करने लगे। भीम ने भगवान शिव को मायावी भैंस के रूप में पहचान लिया। भगवान शिव ने जब यह देखा कि भीम द्वारा उनको पहचान लिया गया तो वह महिष रूप में पृथ्वी में समा ही रहे थे कि महाबली भीम ने दौड़कर भगवान शिव का पिछला हिस्सा पकड़ लिया। पांडवों की भक्ति एवं विश्वास को देखकर भगवान शिव ने उन्हें साक्षात दर्शन दिए और वह गोत्र हत्या पाप के‌ फल स्वरूप प्रायश्चित रूप में भीम द्वारा पकड़े गए पृष्ठ भाग की पूजा अर्चना का आदेश देकर वहां से अन्तर्धान हो गए। पृष्ठ भाग (पिछला हिस्सा)ने शिला का रूप धारण किया। जो पांडवों द्वारा पूजित हुआ जिसे केदारनाथ के नाम से जाना जाता है।

महेश का अग्र भाग (आगे का हिस्सा) नेपाल में जाकर गिरा जिससे पशुपतिनाथ की स्थापना हुई।  महेश के अन्य चार भाग क्रमशः तुंगनाथ में बाहु, रुद्रनाथ में मुख, मद्महेश्वर नाभि, कल्पेश्वर में जटा। इस प्रकार केदारनाथ को छोड़कर महिष रूपी भगवान शंकर के अन्य चार भाग केदार क्षेत्र में प्रतिष्ठित हुए। केदारनाथ सहित ये स्थान पंच केदार के नाम से विख्यात है।

क्या पवित्र गंगा में नहाने से साधक के पाप कर्म कर सकते है?

संसार में अधिकतर लोग यही जानते है कि पवित्र गंगा नदी शिवजी की जटाओं से बहती है और ऐसा भी माना जाता है कि  कि विष्णु लोक से पवित्र गंगा शिवलोक में आई तथा उसके बाद इस संसार में। किंतु क्या आपने कभी सोचा है कि विष्णु लोक में गंगा कहां से आई? 

विष्णु लोक में गंगा ब्रह्मलोक से आई। ब्रह्मलोक में एक सरोवर (Dam) बना हुआ है जिसे जटा कुंडली सरोवर कहते हैं। जटा कुंडली सरोवर में गंगा अविनाशी लोक (सतलोक) से आई है। सतलोक एक ऐसा स्थान है जहां पर जन्म व मृत्यु नहीं होती है। वहां की वस्तु कभी भी खराब नहीं होती हैं। उस लोक का एक उदाहरण पवित्र गंगा है। 

पौराणिक कथाओं के अनुसार पवित्र गंगा ऋषि भागीरथ के कहने से पृथ्वी पर आई है। किंतु यह सच नहीं है। जैसे सूरज ढलता हैं व अगले दिन वह फिर से उगता है, इसके विषय में कोई बताए या न बताएं वह क्रिया होगी, उसी प्रकार पवित्र गंगा को पृथ्वी पर आना था। भागीरथ जी अगर गंगा को अपनी प्रार्थना से पृथ्वी पर लाते या, न लाते गंगा को तो आना ही था। अब बात करी जाए कि गंगा में नहाने से क्या मनुष्य के पाप कर्म कटते हैं? तो ये असंभव  है । क्योंकि पवित्र गंगा में नहाने का किसी भी शास्त्र में प्रमाण नहीं है। हमारे सदग्रंथो में तीर्थ या गंगा में नहाने को व्यर्थ साधना कहा है।  यदि गंगा में नहाने से मोक्ष संभव है तो उसमें रहने वाले जीव जंतुओं को तो निश्चित ही मोक्ष मिल जाना चाहिए। लेकिन उन्हें मोक्ष नहीं मिलता क्योंकि गंगा में नहाने से मोक्ष नहीं होता है क्योंकि शास्त्र अनुसार साधना न होने के कारण इससे मोक्ष संभव नहीं है।

तीर्थ जल में कच्छ और मच्छा, जीव बहुत से रहते हैं।

उनकी मुक्ति ना होती वह कष्ट बहुत सा रहते हैं।।

किन वेदों में प्रमाण है कि तीर्थ व धामों पर जाना चाहिए ?

अज्ञानतावश हमारा अभी तक यही मानना है कि तीर्थ व धाम जाने से मोक्ष मिलता है तथा पाप कर्म कटते हैं। गीता अध्याय 9 श्लोक 25 में गीता ज्ञान दाता कहता  है कि भूत पूजा, पित्तर पूजा, देवताओं की पूजा, पाखंड पूजा व तीर्थ व धाम जाना व्यर्थ है। इस श्लोक में तीर्थ पर जाना मना किया गया है अर्थात किसी भी वेदों में प्रमाण नहीं है कि तीर्थ व धामों पर जाना चाहिए। शास्त्र अनुसार साधना न करने से मोक्ष संभव नहीं है और शास्त्रों में तीर्थ धामों पर जाना मना किया गया है। गीता में सर्वश्रेष्ठ तीर्थ चितशुद्ध तीर्थ को अर्थात तत्वदर्शी संत के सत्संग को बताया है जिससे मोक्ष संभव है।

तीर्थ व धामों पर जाने से मोक्ष संभव नहीं है। क्योंकि इसका प्रमाण हमारे किसी भी सद्ग्रंथ में नही है जिसके कारण यह शास्त्र विरूद्ध ज्ञान है जिसके लिए गीता जी के अध्याय 16 श्लोक 23 में कहा है कि “जो साधक शास्त्र विधि को त्यागकर मनमाना आचरण करते है, उसको ना ही सुख मिलता है, ना ही शांति मिलती है और ना ही उनका मोक्ष होता है” अर्थात शास्त्रो में वर्णित न होने के कारण यह साधना व्यर्थ है। यही कारण है कि हम इतनी भक्ति करते हैं, फिर भी सुख व शांति से नहीं रह पाते। 

 इसके विषय में बताया गया हैं कि :

कबीर, तीर्थ कर-कर जग मुआ, ऊडै़ पानी न्हाय।

सत्यनाम जपा नहीं, काल घसीटें जाय।।

परमेश्वर कबीर जी बताते हैं कि भ्रमित ज्ञान के आधार से संसार के व्यक्ति तीर्थों पर जाते हैं। आजीवन यह साधना करते हैं। जब मृत्यु हो जाती है तो उनको राहत उस साधना से नहीं मिलती। काल के दूत उनको बलपूर्वक (घसीटकर) खींचकर ले जाते हैं, दंडित करते हैं।

यदि तीर्थ व धर्मों पर मोक्ष संभव नहीं है तो वास्तव में मोक्ष किस तरह प्राप्त होता है

तीर्थ यात्रा और पवित्र धामों पर जाने से मोक्ष संभव नहीं है। वास्तव में मोक्ष शास्त्र अनुकूल साधना करने से ही प्राप्त होगा जिसका गीता जी में बहुत अधिक महत्व बताया गया है जो वर्तमान में केवल संत रामपाल जी महाराज ही बता रहे है। उनसे नाम दीक्षा लेने पर अनेको लोगों को लाभ प्राप्त हुए है। गीता अध्याय 16 श्लोक 23 में कहा है कि “जो साधक शास्त्र विधि को त्यागकर मनमाना आचरण करते है, उसको नाहीं सुख मिलता है, ना ही शांति मिलती है और ना ही उनका मोक्ष होता है” अर्थात शास्त्रो में वर्णित न होने के कारण यह साधना व्यर्थ है। 

श्रीमद्देवी भागवत के छठे स्कन्ध, अध्याय 10 पृष्ठ 417 के अनुसार ‘‘तीर्थों के जल में स्नान करने से शरीर का मैल तो धुल जाता है, परंतु मन का मैल नहीं धुलता। उसके लिए तत्त्वदर्शी संत का सत्संग सुनना चाहिए। सत्संग चित्तशुद्धि करता है। इसे चित्तशुद्धि तीर्थ कहा जाता है। इसी का समर्थन गीता अध्याय 4 श्लोक 32 व 34 भी करा गया है।

तीर्थों के विषय में कहा गया है कि:

कबीर, गंगा कांठै घर करें, पीवै निर्मल नीर।

मुक्ति नहीं सत्यनाम बिन, कह सच्च कबीर।।

अर्थात् परमेश्वर कबीर जी ने बताया कि चाहे गंगा नदी के किनारे निवास करो या चाहे मोक्षदायिनी मानकर गंगा का निर्मल पानी पीते रहो, भक्ति के सत्य शास्त्र प्रमाणित नाम बिना मोक्ष संभव नहीं है। 

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