योग और ध्यान: कौनसी योग साधना है उत्तम, जाने शास्त्रों के अनुसार

योग और ध्यान कौनसी योग साधना है उत्तम, जाने शास्त्रों के अनुसार

योग एक समग्र अभ्यास है जो शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य को संतुलित करने में सहायक होता है। वर्तमान समय में मानव अनेक समस्याओं से घीरा है जीवन की जटिलता की उलझने विभिन्न प्रकार की चिंताएं और तनाव मनुष्य की प्रमुख समस्याएं हैं शारीरिक योग से समस्याओं को कम तो किया जा सकता है लेकिन खत्म नहीं किया जा सकता आध्यात्मिक योग के बल से इन समस्याओं को ख़त्म किया जा सकता है। आगे जानिए शारीरिक योग और आध्यात्मिक योग से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी। 

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस हर साल 21 जून को मनाया जाता है।  27 सितंबर 2014 को संयुक्त राष्ट्र महासभा में अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के प्रस्ताव को अमेरिका द्वारा मंजूरी मिलने के बाद सर्वप्रथम 21 जून 2015 को पूरे विश्व में योग दिवस का आयोजन किया गया था।

21 जून का चुनाव इसलिए किया गया क्योंकि यह दिन उत्तरी गोलार्ध में साल का सबसे लंबा दिन होता है, जब सूर्य की किरणें सबसे अधिक समय तक पृथ्वी पर रहती हैं। यह दिन ऊर्जा और सकारात्मकता का प्रतीक माना जाता है, जो योग के उद्देश्यों के साथ मेल खाता है। पहली बार 21 जून 2015 को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाया गया, जिसमें विश्वभर के लोगों ने योग के महत्व को समझा और उसे अपने जीवन का हिस्सा बनाने का संकल्प लिया। 

योग क्या है? व इसके लाभ

शारीरिक स्वाथ्य तथा मन की शान्ति के लिए सर्वोत्तम साधन है योग। ‘योग’ शब्द संस्कृत शब्द ‘युज’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है ‘जुड़ना’ या ‘मिलना’ या ‘एकजुट होना’।  स्वस्थ जीवन जिने का विज्ञान और कला है। आत्मा और परमात्मा का एकीकरण अथवा प्राण तथा अपान आदि विरुद्ध युग्मो के एकीकरण को ही योग कहते हैं। योग का लक्ष्य शरीर को मानसिक शांति प्राप्त करने हेतु तैयार करना है।

शारीरिक योग के कई लाभ होते हैं, जो शरीर और मन दोनों के लिए फायदेमंद होते हैं। यहाँ कुछ प्रमुख लाभ दिए गए हैं:

  • तनाव में कमी: योग शारीरिक और मानसिक तनाव को कम करता है। श्वसन तकनीक और ध्यान के माध्यम से मन को शांति मिलती है।
  • श्वसन स्वास्थ्य: योग में प्राणायाम (श्वसन अभ्यास) का महत्वपूर्ण स्थान है, जो फेफड़ों की क्षमता बढ़ाता है और श्वसन तंत्र को मजबूत करता है।
  • रक्त संचार में सुधार: योग का अभ्यास रक्त संचार को बेहतर करता है, जिससे शरीर के सभी अंगों में ऑक्सीजन और पोषक तत्व अच्छे से पहुँचते हैं।
  • नींद में सुधार: योग के नियमित अभ्यास से नींद की गुणवत्ता में सुधार होता है और अनिद्रा की समस्या कम होती है।
  • वजन घटाना: योग से शरीर की चर्बी कम होती है और वजन नियंत्रण में रहता है।मानसिक शांति: ध्यान और योग मन को शांत और स्थिर रखते हैं, जिससे चिंता और अवसाद जैसी समस्याएँ कम होती हैं।

योग की उत्पत्ति व योग का इतिहास

योग की उत्पत्ति के बारे में कई मान्यताएँ और कथाएँ हैं, जो इसके इतिहास को समृद्ध और विविध बनाती हैं। योग की शुरुआत लगभग 5,000 साल पहले मानी जाती है, जब इसे एक प्राचीन आध्यात्मिक अनुशासन के रूप में विकसित किया गया।

प्राचीन काल से ही हिंदू धर्म के ऋषि, महर्षियों‌, साधु – संतों द्वारा योग को अपनाया जाता रहा है। हमारे पवित्र वेदों में भी योग का उल्लेख किया गया है। सिंधु घाटी सभ्यता में योग को प्रदर्शित करती हुई मूर्तियों के अवशेष प्राप्त हुए हैं जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि योग लगभग 10,000 वर्ष पूर्व से ही किया जा रहा है।

500 ईसा पूर्व से 800 ईसवी के बीच की अवधि को योग के शास्त्रीय काल के रूप में जाना जाता है, जिसमें पतंजलि के योग सूत्रों और भगवद्गीता पर व्यास की टिप्पणियों का महत्व बढ़ा। 800 से 1700 ईसवी के बीच योग के अभ्यास और शिक्षा का और भी विस्तार हुआ, जिसमें हठयोग परंपरा का विकास हुआ।

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आधुनिक काल: 1700 से 1900 ईसवी के बीच, योग को आधुनिक काल में प्रवेश मिला, जिसमें स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस, परमहंस योगानंद जैसे महान योगाचार्यों ने योग को नए स्तर पर पहुँचाया। इस काल में योग के विभिन्न रूपों जैसे राजयोग, भक्ति योग, और हठयोग का भी विकास हुआ।

वर्तमान समय: आज योग वैश्विक स्तर पर फैल चुका है और इसे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है। स्वामी शिवानंद, बी.के.एस. अयंगर, और स्वामी सत्यानंद सरस्वती जैसी महान विभूतियों ने योग को दुनिया भर में लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

हिन्दु शास्त्रों मे योग व ध्यान

ऋषभदेव, महावीर जैन, गौतम बुद्ध, चुणक ऋषि, गौरख नाथ व नाथ परंपरा से जुड़े़ सभी ऋषि मुनि, स्वयं शंकर भगवान, ब्रह्मा जी, विष्णु जी और नारद जी, हनुमान जी भी हठयोग किया करते थे। शिव भगवान तो नृत्य क्रियाएं भी किया करते थे। यह सब हठयोग किया करते थे और आज के समय में लोग योगा के विभिन्न आसन शरीर को चुस्त-दुरुस्त रखने के लिए करते हैं। योग का प्रयोग शरीर को सुंदर, सुडौल, स्वस्थ और रोगों से दूर रहने के लिए किया जाता है परंतु शरीर को रोगों से बचाने में योग सौ प्रतिशत सफल नहीं रहता। 

योग का जिक्र महाभारत और भगवद्गीता जैसे प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है। भगवद्गीता में ज्ञान योग, भक्ति योग, और कर्म योग के रूप में योग के विभिन्न प्रकारों का वर्णन किया गया है, जो आज भी प्रचलित हैं।

हठयोग : शरीर के साथ आध्यात्मिक मार्ग में भी हानिकारक। 

पुरातन समय में ऋषि-मुनियों व योगियों ने भी तनाव मुक्त रहने एकाग्रचित्त होने और परमात्मा की प्राप्ति के लिए हठ योग समाधि या ध्यान लगाने जैसी क्रियाए की है आध्यात्मिक मार्ग में मेडिटेशन को हठयोग कहा गया है हठयोग करना मतलब जबरदस्ती शरीर की आरामदायक स्थिति के खिलाफ ताकत लंबे समय तक एक ही जगह पर एक ही स्थिति में बैठकर ध्यान लगाना जो कि शरीर के लिए ही नहीं बल्कि आध्यात्मिक मार्ग की साधकों के लिए भी बहुत ही हानिकारक है। श्रीमद्भगवतगीता अध्याय 6 के श्लोक 16 में हठ योग के विषय में यह स्पष्ट किया है कि एकान्त में बैठकर विशेष आसन बिछाकर साधना करना वास्तव् में श्रेष्ठ नहीं है।

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः । 

न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन। । (6.16)

इसीलिए हे अर्जुन ! इसके विपरीत उस पूर्ण परमात्मा को प्राप्त करने वाली भक्ति न तो एकान्त स्थान पर विशेष आसन या मुद्रा में बैठने से तथा न ही अत्यधिक खाने वाले की और न बिल्कुल न खाने वाले अर्थात् व्रत रखने वाले की तथा न ही बहुत शयन करने वाले की तथा न ही हठ करके अधिक जागने वाले की सिद्ध होती है।

कहीं मेडिटेशन करना एक तरह से तप करने की समान तो नहीं है ? मेडिटेशन करना एक तरह से तप करने की समान हि है जो भगवान प्राप्ति के उद्देष्य से समाधि अभ्यास करते हैं वह उनका तप बन जाता है परंतु किसी भी सदग्रंथ में तप करने को नहीं कहा गया है जिससे यह सिद्ध होता है। तप से रिद्धि – सिद्धि तो प्राप्त हो सकती है पर ईश्वर प्राप्ति असंभव है प्रभु के आदेश के विरूद्ध जाकर तब और योग करने से जीव पाप का भागी बनता है।

शारीरिक योग से अधिक आवश्यक है सतभक्ति।

योग का मानव जीवन में विशेष स्थान है। योग के नियमित अभ्यास से व्यक्ति शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रहता है। यह जीवन के तनाव को कम करता है, शरीर को सुडौल बनाता है, और मन को शांत करता है। योग से मन और आत्मा में संतुलन आता है, जिससे व्यक्ति निरोगी और प्रसन्न रहता है। हालांकि, केवल शारीरिक और मानसिक लाभ प्राप्त करना ही मनुष्य जीवन का अंतिम उद्देश्य नहीं होना चाहिए। परमात्मा प्राप्ति ही मनुष्य जीवन का असली उद्देश्य है, जो मात्र योग से संभव नहीं है। 

परमात्मा प्राप्ति के लिए सतभक्ति आवश्यक है, और यह सतभक्ति केवल तत्वदर्शी संत के मार्गदर्शन में ही प्राप्त हो सकती है। अन्य गुरुजन, चाहे वे कितने भी विद्वान क्यों न हों, तत्वदर्शी संत के समान सतभक्ति प्रदान नहीं कर सकते। सतभक्ति का महत्व इसीलिए अधिक है क्योंकि यह न केवल मन और आत्मा को सच्ची शांति प्रदान करती है, बल्कि जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति दिलाने का मार्ग भी प्रशस्त करती है।

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यदि कोई मनुष्य सतभक्ति नहीं करता है, तो उसे 84 लाख योनियों के कष्ट झेलने पड़ते हैं। योगा से कुछ देर के लिए सांसारिक समस्याओं से राहत मिल सकती है, लेकिन मन की स्थायी शांति सतभक्ति के बिना संभव नहीं। सतभक्ति करने से व्यक्ति का मन और आत्मा सदैव प्रसन्नचित रहते हैं, और शरीर भी स्वस्थ रहता है। 

इसलिए, योग के लाभों को अपनाते हुए भी हमें तत्वदर्शी संत के मार्गदर्शन में सतभक्ति करनी चाहिए। ऐसा करने से ही हम न केवल शरीर और मन को स्वस्थ रख सकते हैं, बल्कि अपनी आत्मा को भी परमात्मा से जोड़ सकते हैं। सतभक्ति हमें सच्चे सुख, शांति और मोक्ष की प्राप्ति कराती है, जो जीवन का अंतिम और सर्वोच्च उद्देश्य है।

शास्त्रविरुद्ध क्रियाये है हानिकारक

पवित्र गीता के अध्याय 16 श्लोक 23-24 में कहा गया है कि जो व्यक्ति शास्त्र विधि को त्यागकर मनमानी पूजा करते हैं उन्हें किसी प्रकार का कोई लाभ नहीं मिलता। गीता ज्ञानदाता कहता है कि मनमानी पूजा करने वालों को न तो कोई सुख मिलता है, न ही उनको परमगति प्राप्त होती है और न ही उनको कोई सिद्धि प्राप्त होती है। इस तरह वह साधक अपना जीवन बरबाद कर जाते हैं।

हठयोग करके ध्यान करना या समाधि लगाना गीता ज्ञान दाता का मत है कि ‘व्यर्थ क्रिया है‘। गीता जी में एक जगह बैठकर साधना करने वाले व्यक्ति की साधना को व्यर्थ बताया गया है। इसीलिए समाधि नहीं लगानी चाहिए।  

गीता अध्याय 6 श्लोक 10 से 15 में एक स्थान पर विशेष आसन पर विराजमान होकर हठ करके ध्यान व दृृष्टि नाक के अग्र भाग पर लगाने आदि की सलाह दी है। व गीता अध्याय 6 श्लोक 10 से 15 तक वर्णित विधि का खण्डन गीता अध्याय 3 का श्लोक 5 से 9 में किया है कि जो मूर्ख व्यक्ति समस्त कर्म इन्द्रियों को हठपूर्वक रोक कर अर्थात् एक स्थान पर बैठकर चिन्तन करता है वह पाखण्डी कहलाता है। इसलिए कर्मयोगी (कार्य करते-2 साधना करने वाला साधक) ही श्रेष्ठ है। वास्तविक भक्ति विधि के लिए गीता ज्ञान दाता प्रभु (ब्रह्म) किसी तत्वदर्शी की खोज करने को कहता है (गीता अध्याय 4 श्लोक 34)

गीता के इन मंत्रो से होगा मोक्ष – संत रामपाल जी

केवल सत्यनाम और सारनाम के जाप से होगा पूर्ण मोक्ष। श्रीमद्भागवत गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में सच्चिदानंद घन ब्रह्म (परम अक्षर ब्रह्म) अर्थात पूर्ण परमात्मा की भक्ति के लिए “ओम् तत् सत्” इस तीन मंत्र के जाप (सुमिरन) का निर्देश किया गया है। जिसके सुमिरन की तीन प्रकार की विधि बताई गई है। इसमें ओम (ॐ), गीता अध्याय 8 श्लोक 13 से स्पष्ट है कि यह ब्रह्म (काल) का मंत्र है तथा “तत्” और ‘‘सत्’’ मंत्र तो सांकेतिक है, वास्तविक मंत्र तो इससे भिन्न है। इसमें ओम् व तत् मिलकर सत्यनाम बनता है और सत् जोकि सारनाम की ओर संकेत करता है। जिसे पूर्ण संत यानि तत्वदर्शी संत ही बता सकता है और वे तत्वदर्शी संत ही सत्यनाम और सारनाम के जाप करने की विधि बताते हैं। इन नामों के जाप करने से साधक का पूर्ण मोक्ष हो जाता है।

इन पूर्ण मोक्षदायक मंत्र सत्यनाम और सारनाम (ओम् तत् सत्) को प्रदत्त करने का अधिकारी केवल परमात्मा द्वारा नियुक्त पूर्ण तत्वदर्शी संत ही होता है जिसकी पहचान गीता अध्याय 15 के श्लोक 1 में स्पष्ट की गई है कि यह संसार रूपी पीपल का वृक्ष है जिसकी ऊपर को जड़ तो पूर्ण ब्रह्म यानि परम अक्षर ब्रह्म है। नीचे को तीनों गुण रूपी शाखाएँ हैं। जो संत इस संसार रूपी उल्टे लटके हुए वृक्ष के सभी अंगों की जानकारी रखता है, वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला है यानि वह तत्त्वदर्शी संत (पूर्णसंत/पूर्णगुरु) है। जिसे संत भाषा में सतगुरु भी कहते हैं।

वर्तमान में संत रामपाल जी महाराज जी ही एक मात्र तत्वदर्शी संत धीरानाम/बाखबर/इलमवाला/मसीहा हैं। सभी पाठकों से अनुरोध है कि पूर्ण संत धरती पर अवतरित हैं उन्हें उनके तत्वज्ञान से पहचान कर नकली धर्म गुरुओं को शीघ्र त्याग कर उनसे नाम दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्ति के पात्र बनें।

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