Social Research: दवाएं कैसे बनती है? प्राचीन वैद्य से लेकर डॉक्टर तक का सफर

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नमस्कार दर्शकों! खबरों की खबर के इस स्पेशल कार्यक्रम में आप सभी का स्वागत है। इस बार हम देश दुनिया में बनने वाली दवाइयों के उत्पादन से लेकर मार्केट में उसकी बिक्री तक की प्रक्रिया को जानेंगे और साथ ही फर्ज़ी दवाइयों के घोटालों और कालाबाज़ार पर भी एक नज़र डालेंगे।

दोस्तों पहले के समय में वैध हुआ करते थे जो जड़ीबूटियों का प्रयोग कर पैड़ पौधे, फल, कंदमूल आदि से ओषधियां बना दिया करते थे। उस समय के वैधों को जड़ी बूटियों की अच्छी जानकारी हुआ करती थी। इन औषधियों का प्रयोग मानव, पशु और पक्षी आदि के इलाज के लिए किया जाता था। पहले के लोग चुस्त और स्वस्थ हुआ करते थे अपने सारे काम स्वयं ही किया करते थे । हवा शुद्ध और शुद्ध ही आहार हुआ करता था। बिमारियां भी नाम मात्र ही थीं।

उस समय वैध, लोगों का इलाज पैसे कमाकर अमीर बनने के लिए नहीं करते थे। बल्कि इसे एक ज़रूरी सेवा के तहत निभाया जाता था। वैध अधिकतर लोगों का इलाज मुफ्त में ही कर दिया करते थे, बदले में दक्षिणा के तौर पर कोई रकम फिक्स नहीं होती थी, इलाज करवाने वाला व्यक्ति जितना सक्षम होता था उस हिसाब से खुश होकर दक्षिणा दे दिया करता था।वैध पैसे के लालची नहीं थे, रोगी का इलाज हो जाए, पीड़ा दूर हो जाए और उसकी जान बच जाए, उनका बस इतना ही उद्देश्य होता था। न ही वे और अन्य जड़ीबूटियों की कालाबाजारी करते थे।

किंतु वर्तमान समय में स्थिति बिल्कुल विपरीत है। आज अधिकतर बच्चे ,डॉक्टर केवल इसलिए बनना चाहते हैं क्योंकि इस प्रोफेशन में बहुत अधिक पैसा और सुविधाएं हैं उनके लिए डाक्टरी एक मालदार पेशा बन चुका है। केवल 1% ही डाक्टर इसलिए बनना चाहते हैं क्योंकि वह समाज और लोगों की सेवा करना चाहते हैं।

आइए अब दवाई बनाने की प्रक्रिया पर एक नज़र डालते है जिस से इसके उत्पादन में आने वाले खर्च से लेकर बिक्री तक कंपनी को होने वाले प्रॉफिट का अंदाजा लगाया जा सके।

दवाएं कैसे बनाई जाती हैं?

हम उन दिनों से बहुत आगे आ चुके हैं जब ज्यादातर दवाएं पौधों या जानवरों से बनाई जाती थीं। आज, अधिकांश दवाओं का उत्पादन रासायनिक प्रक्रियाओं के माध्यम से किया जाता है। वैज्ञानिक, अनुसंधान, अध्ययन और परीक्षण के माध्यम से, पौधों और जानवरों में रसायनों को अलग कर उनका प्रयोग करते हैं जो कुछ बीमारियों का इलाज करने में कारगर सिद्ध होते हैं। समय के साथ, हम कृत्रिम पदार्थों को बनाने और दवाओं के उत्पादन के लिए उनका उपयोग करने में सक्षम रहे हैं।

दुनिया में सबसे अच्छा रसायन प्रकृति है। पौधे, कीड़े, फंगस और बैक्टीरिया सभी में हजारों रासायनिक यौगिक होते हैं, जो की बायो एक्टिव होते हैं जिसका अर्थ है कि वे ही बीमारियों को फैलाने का कारण बनते हैं और वे ही बीमारियों को खत्म करने का भी कारण बनते हैं। इस कारण से बहुत सी वैज्ञानिक गतिविधियों का उद्देश्य प्राकृतिक उत्पादों को खोजना, अलग करना, पहचानना और उनकी नकल करना होता है। बड़ी बड़ी फैक्ट्रिस आदि में दवाइयों की बड़ी बड़ी बेच यानी की एक साथ सेकडौं दवाइयों को बनाया जाता है। कम्पनी में मानव और मशीनों दोनों द्वारा लगभग बराबर काम करवाया जाता है।

कुछ दवाएं कई रसायनों को मिलाकर प्रयोगशालाओं में बनाई जाती हैं। अन्य, जैसे पेनिसिलिन, organisms or fungus जैसे जीवों से बनती हैं और कुछ जीवाणुओं में जीन डालने के द्वारा जैविक रूप से जो उन्हें वांछित पदार्थ उत्पन्न करते हैं।

दवाओं के प्रकार

दवाओं के कई आकार और प्रकार होते हैं। कुछ छोटी गोलियां होती हैं जिन्हें निगलना आसान होता है। अन्य बड़ी गोलियां हैं जिन्हें निगलना मुश्किल होता है। कुछ दवाएं सिरप के रूप में होती हैं जिन्हें पानी की तरह पीना होता है और अन्य दवाएं ऐसी भी होती हैं जिन्हें आपको श्वासों के ज़रिए लेना होता है। इसके अलावा इंजेक्शन आदि के माध्यम से दवाई को शरीर में सीधा इंजेक्ट किया जाता है, इंजेक्ट करने वाले लिक्विड की मात्रा ज्यादा हो तो सूई के जरिए बोतलें भी चढ़ाई जाती हैं । चमड़ी पर ट्यूब आदि घिसने से भी दवाई को शरीर के अंदर पहुंचाया जाता है। बीमारी के स्रोत तक पहुँचने और उन्हें यथासंभव प्रभावी बनाने के लिए दवाई को अलग अलग तरीके से शरीर में डाला जाता है।

नई दवाओं की खोज और विकास

जैसा कि आप जानते हैं किसी भी नई दवा के बाज़ार में आने से पहले उसे जानवरों और मानवों पर भी टेस्ट किया जाता है।

  • मनुष्यों के लिए दवाओं की सुरक्षा और प्रभावकारिता का परीक्षण करने के लिए दुनिया भर की प्रयोगशालाओं में हर साल चूहों, खरगोशों, कुत्तों और बंदरों सहित लाखों जानवरों का नियमित रूप से उपयोग किया जाता है। सभी पारंपरिक दवाओं का जानवरों पर परीक्षण किया जाता है क्योंकि यह नियामकों द्वारा और कई देशों में कानून द्वारा आवश्यक है।
  • परंतु अब कई देशों में जानवर सरंक्षण संस्थाओं द्वारा इसे जानवरों के साथ की जा रही बदसलूकी की श्रेणी में रखा गया है जिस कारण से अब कुछ दवाओं की कंप्यूटरों पर टेस्टिंग भी होने लगी है।
  • नई दवाओं की खोज और विकास एक लंबी और महंगी प्रक्रिया है और आमतौर पर प्रति दवा 2.6 बिलियन डॉलर की लागत से इसे पूरा करने में औसतन 10-15 साल लगते हैं। परीक्षण में जानवरों का उपयोग किया जाता है। पशु परीक्षणों में आशाजनक परिणाम के बावजूद 90% दवाएं मानव परीक्षणों में विफल हो जाती हैं।

नई दवाओं का विकास एक बहुत ही जोखिम भरा व्यवसाय है। जिन नई दवाओं का आविष्कार किया गया है, उनमें से अधिकांश इसे कभी भी सामान्य उपयोग के लिए नहीं बनाती हैं, अक्सर कई दसियों या सैकड़ों लाखों पाउंड नैदानिक ​​​​परीक्षणों पर खर्च किए जाने के बावजूद उन परीक्षणों से गुजरने वाली अधिकांश नई दवाओं को छोड़ दिया जाता है, क्योंकि वे अप्रभावी साबित होती हैं (या मौजूदा उपचारों की तुलना में अधिक प्रभावी नहीं) या उनके प्रतिकूल प्रभाव होते हैं जो उनके लाभों से अधिक होते हैं।

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इसका मतलब यह है कि फार्मास्युटिकल कंपनियां संभावित नए उत्पादों में भारी मात्रा में पैसा निवेश करती हैं जो दुर्भाग्य से बाज़ार तक पहुंचने में विफल रहते हैं और इसलिए कंपनी और उसके शेयरधारकों के लिए कोई लाभ नहीं पैदा करते हैं।

जब कोई नई दवा बाजार में आती है, तो उसके डेवलपर को दवा विकसित करने की लागत (साथ ही उन सभी दवा उम्मीदवारों पर खर्च की गई लागत को वापस लेना पड़ता है, जो छोड़ने से पहले विकास प्रक्रिया के माध्यम से आंशिक रूप से प्राप्त हुए थे)। इसका अनिवार्य रूप से मतलब यह है कि कंपनी को दवा के लिए ऊंची कीमत चुकानी पड़ती है।

ज्यादातर मामलों में,नई दवाओं को विकसित करना और बाजार में लाना बेहद मुश्किल होता है, एक बार ऐसा हो जाने के बाद उन्हें कॉपी करना भी आमतौर पर काफी आसान होता है। इस कारण से, अनुसंधान-आधारित दवा उद्योग यह सुनिश्चित करने के लिए बहुत अधिक प्रयास करता है कि सभी नई दवाएं पेटेंट द्वारा संरक्षित हैं।

दवा की कीमत कैसे तय होती हैं?

दवाइयों के उत्पादन में जितना खर्च होता है मार्केट में उसकी कीमत उस से कई गुना अधिक रखी जाती है। अधिकांश अन्य देशों के विपरीत, जहां दवाएं स्वास्थ्य मंत्रालय के पूर्वावलोकन के अंतर्गत आती हैं, भारत में दवा क्षेत्र की जिम्मेदारी दो मंत्रालयों द्वारा साझा की जाती है, the Department of Chemicals and Petrochemicals under the Ministry of Chemicals and Fertilizers and the Office of Drugs Controller under the Ministry of Health and Family Welfare.

भारत सरकार की फार्मास्युटिकल नीतियों का मुख्य ज़ोर निजी क्षेत्र में दवाओं के निर्माण और विपणन पर रहा है, न कि आम आदमी के लिए आवश्यक दवाओं की पहुंच में सुधार पर। सरकार ने मूल्य नियंत्रण के तहत दवाओं की संख्या भी 1978 में 347 से घटाकर 1995 में 74 कर दी है।

भारतीय स्वास्थ्य क्षेत्र आर्थिक उदारीकरण, विश्व बैंक द्वारा संरचनात्मक समायोजन सुधारों और फार्मास्यूटिकल्स के उत्पादन की बढ़ती लागत से प्रभावित हुआ है। दवाओं की बढ़ती लागत लोगों के लिए स्वास्थ्य देखभाल तक नहीं पहुंचने का एक कारण हो सकती है।

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भारत की 80% आबादी आज भी प्राइवेट अस्पतालों और दवाखानों पर निर्भर है। एक सर्वे के मुताबिक भारत की लगभग 60% आबादी को ज़रूरी दवाईया नहीं मिल पाती। बावजूद इसके की पूरे विश्व में बनने वाली सभी दवाइयों में अकेले भारत का 8% का योगदान है। सर्वे के मुताबिक ग्रामीण विस्तार में लोगों द्वारा हेल्थ को लेकर किए जाने वाले खर्च में से 60 से 90 प्रतिशत खर्च दवाइयों में ही जाता है।

एक सर्वे के मुताबिक दवाई की दुकान वालों को प्रति दवाई 5% से लेकर 30% का profit मिलता है। जबकि फ्रेंचाइज वाली ऑफलाइन फार्मेसियों में ब्रांडेड दवाओं के वजह से प्रॉफिट मार्जिन 15-20% के बीच होता है, जो जेनरिक दवाओं के मामले में 40-50% तक जा सकता है। ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए 12-80% छूट की पेशकश के साथ फ़्रैंचाइज़र यह सुनिश्चित करते हैं कि उनकी फ़्रैंचाइजी 15% से अधिक मार्जिन प्राप्त करें।

क्यों होती है दवाओं की कालाबाज़ारी?

आम तौर पर दवाई के बनने से लेकर बाजार में उसकी बिक्री तक के डिस्ट्रीब्यूशन चैनल में कुल 5 स्तर होते हैं।

कम्पनी / मैन्युफैक्टरर
वाहक और अग्रेषण एजेंट ( write these typical words in English only to make it understand by the general viewer)
स्टॉकिस्ट
डिस्ट्रीब्यूटर
रिटेल ( केमिस्ट / फारमैसी / मेडिफल स्टोर )

नैतिक रूप से प्रॉफिट मार्जिन को उपरोक्त पांच फर्मों के बीच विभाजित किया जाना चाहिए। लेकिन वास्तव में प्रॉफिट मार्जिन अन्य व्यक्तियों में भी वितरित किया जाता है। जिसे कालाबाज़ारी कहा जाता है। अनैतिक व्यवहार के मामले में, प्रॉफिट मार्जिन वास्तविक लाभ मार्जिन से कई गुना अधिक हो सकता है। अनैतिक व्यवहार का अर्थ है स्वयं के लाभ को जोड़कर किसी दवा को उसकी वास्तविक लागत से बहुत अधिक पैसे में बेचना। जेनेरिक दवाएं एमआरपी पर तो बिकती नजर आ रही होती हैं, लेकिन वास्तव में इसकी लागत एमआरपी से 4-5 गुना कम होती है।

आमतौर पर एक रिटेलर का प्रॉफिट मार्जिन 16 से 22 प्रतिशत का होता है, एक डिस्ट्रीब्यूटर का 8 से 12 प्रतिशत का, एक स्टॉकिस्ट का 6 से 10% का, और एक CFA एजेंट का 4 से 8 प्रतिशत होता है। इसके अलावा एक कंपनी जो खुद दवाई बनाती है उसका प्रॉफिट मार्जिन सबसे अधिक होता है। यह सब मिलाकर दवाई की कीमत को कुल लागत से 6 से 8 गुना तक महंगा कर देता है। इन सब का अर्थ यह हुआ की यदि किसी दवाई की लागत 10 रुपए है। तो वह दवाई आपके हाथों में आते आते 60 से 80 रूपयों की हो जायेगी।

इसके अलावा बाज़ार में कुछ लालची लोगों द्वारा दवाइयों के स्टॉक कर उसकी सप्लाई कम कर दी जाती है जिस से उसकी डिमांड बढ़ जाती है। डिमांड बढ़ने पर उसी दवाई की कालाबाज़ारी कर लाखों करोड़ों का फर्जीवाड़ा किया जाता है। जैसा कि आप सभी ने कॉरोना वायरस की दूसरी लहर के चलते देखा होगा की कैसे अचानक से ऑक्सीजन और रेमडेसिविर की किल्लत होने से लाखों करोड़ों रुपयों की कालाबाजारी होनी शुरू हो गई। 2 ढाई हजार में मिलने वाली रेमडेसिवीर की डोज़ कालाबाजारी के चलते 40-50 हजार तक में बिकने लगी। इसके अलावा लाखों नकली रेमडेसिविर के घोटाले भी सामने आए, जिसके चलते कई सेकडौं लोगों की गिरफ्तारी भी हुई, और कई लोगों के खिलाफ मुकदमे भी दर्ज किए गए। इसके अलावा कोरोनाकाल में आई नई एपिडेमिक ब्लैक फंगस की दवाइयों की कालाबाज़ारी के भी कई मामले सामने आ रहे हैं। कालाबाजारी के मामले में कई बड़े नेताओं ,व्यापारियों और दलालों के नाम भी सामने आए हैं।

आइए अब इस विषय पर आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी एक नजर डालते हैं।

दोस्तों ! हिंदू धर्म के पवित्र शास्त्र और वेद बताते हैं की कोई भी बीमारी पिछले जन्मों के पाप कर्मों की वजह से इंसान को होती है। किसी भी दवाई का काम करना या ना करना यह भी प्रारब्ध में जमा पाप और पुण्य कर्मों पर निर्भर होता है। प्रारब्ध को एक ऐसा बैंक समझ लीजिए जो आपके जन्म जन्मांतर के इकट्ठे किए हुए पाप और पुण्य कर्मों की जमा पूंजी का कुछ अंश इकट्ठा रखता है। यदि आपके अकाउंट में खर्च करने के लिए पुण्य कर्म बचे हैं तब ही कोई दवाई आपके लिए कारगर साबित होगी। यदि कोई पुण्य कर्म शेष नहीं है तो दवाई भी व्यर्थ हो जाती है। यही कारण है की लोग अक्सर कहते हैं दवाई ने काम नहीं किया या दवाई से रिएक्शन हो गया।

अब तक हमने यही सुना था की पाप कर्म दंड भोगने से ही समाप्त होता है, लेकिन यह गलत है। पवित्र वेद बताते हैं कि पूर्ण परमात्मा पाप कर्म दंड को भी समाप्त कर सकता है। आध्यात्मिक ज्ञान से हमें यह पता चलता है की हमारी असली पूंजी तो राम नाम की कमाई है, जिसे केवल एक तत्वदर्शी संत से सत्य भक्ति मंत्र प्राप्त करने के बाद ही इकट्ठा किया जा सकता है। वर्तमान समय में पूरे विश्व में केवल जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज जी हैं जिनके पास असली तारक मंत्र है, जो पाप कर्म दंड को समाप्त कर देते हैं, जिस से साधक को होने वाली बीमारी स्वतः ठीक हो जाती है। इसके अलावा साधक के पुण्य कर्मों में भी बढ़ोतरी होती है जिसके चलते उस साधक के लिए सारी दवाइयां कारगर साबित होने लगती है। संत रामपाल जी महाराज जी से नाम दीक्षा लेकर गुरु मर्यादा का पालन कर सत्य भक्ति करने वाले सेकडौं अनुयायी आज कैंसर, एड्स, आदि जैसी लाइलाज बीमारियों से निजात पा चुके हैं। विश्व के महान भविष्यव्यकताओं के मुताबिक भविष्य में एक ऐसा समय आयेगा जब एक विश्व विजेता संत जिसकी कृपा से जनसाधारण को अपने मौलिक अधिकार जिनमें चिकित्सा सेवाएं,दवाइयां, इंजेक्शन, अस्पताल में इलाज आदि मुफ्त में उपलब्ध करवाया जायेगा। उस समय दवाइयों की कालाबाज़ारी आदि भी नहीं हुआ करेगी। दवाई, ऑक्सीजन, बेड आदि की किल्लत भी नहीं हुआ करेगी। वह विश्व विजेता संत और कोई नहीं बल्कि संत रामपाल जी महाराज ही हैं। अतः आप सभी से प्रार्थना है की बिना अपना समय गवाएं संत रामपाल जी महाराज जी की शरण में आकर अपना जीवन स्वस्थ और सुखमय बनाएं।

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